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२३२ सप्ततिकाप्रकरण - .
विरए खोवसमिए चउराई सत्त छच्चपुव्वम्मि ।' अनियट्टिबायरे पुण इक्को व दुवे व उदयंसा ॥४४॥ एणं सुहुमसरागो वेएइ अवेयगा भवे सेसा । भंगाणं च पमाणं पुवुद्दिद्रुण नायव्वं ।। ४५ ॥
अर्थ-मिथ्यात्वमे ७ से लेकर १० तक ४, सास्वादन और मिश्रमे ७से लेकर ९ तक ३, अविरत सम्यक्त्वमें से लेकर तक ४, देशविरतमे ५ से लेकर ८ तक ४, प्रमत्त और अप्रमत्तविरतमें ४ से लेकर ७ तक ४, अपूर्वकरणमे ४ से लेकर ६ तक ३ और अनिवृत्तिबादर सम्परायमें दो प्रकृतिक और एक प्रकृतिक इस प्रकार दो उदयस्थान होते हैं। तथा सूक्ष्मसम्पराय जीव एक प्रकृ. तिका वेदन करता है और शेष गुणस्थानवाले जीव अवेदक होते हैं। इनके भंगो का प्रमाण पहले कहे अनुसार जानना चाहिये।
विशेषार्थ- मोहनीयकी कुल उत्तरप्रकृतियां २८ हैं। उनमेंसे एक साथ अधिक से अधिक १० प्रकृतियोका और कमसे कम १ प्रकृति का एक कालमें उदय होता है। इस प्रकार १ से लेकर १० तक १० उदयस्थान प्राप्त होते है किन्तु केवल ३ प्रकृतियों का
(१) 'मिच्छे सगाइचउरो सासणमीसे सगाइ तिष्णुदया। छप्पंचचठरसुव्वा तिथ चउरो अविरयाईण ॥ पञ्च० सप्त० गा० २६ 'सत्तादि दसु. कस्सं मिच्छे सण ( सासण) मिस्सए गबुकस्सं । छादी य गवुकस्सं अविरदसम्मत्तमादिस्स ॥ पचादि अहणिहणा विदाराबिरदे उदीरणहाणा । एगादी तिगरहिदा सत्तकस्सा य विरदस्स ॥ धव० उद० श्रा०प०१०२२ । दसणवणवादि चउतियतिट्ठाण वसगसगादि चज । ठाणा छादि तिय च य चवीसगदा' अपुचो तिं ॥४०॥ उदयहाणं दोहं पणबंधे होदि दोण्हमेकस्स। चदुविहबंधहाणे सेसेसेय हवे ठाणं ॥४२॥ गो० कर्म