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सप्ततिकाप्रकरण
દ
के और देवके ५ भंग बनला आये हैं तो कुल मिलाकर २८ भंग होते हैं वे ही यहां पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रियके २८ भंग कहे गये हैं। तथा संत्री पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक जीव मनुष्य और तिर्यच ही होते हैं, क्योंकि देव और नारकियोके अपर्याप्तक नाम कर्मका उदय नहीं होता । तथा इनके पर भवसम्वन्धी मनुष्यायु और निर्यचायुका ही वन्ध होता है, अत इनके मनुष्य निकी अपेक्षा ५ और तिथेच गतिकी अपेक्षा ५ इस प्रकार कुल १० भग होते हैं । यथा - आयुबन्ध के पहले तिर्यचायुका उदय और तिर्यचायुका सत्त्व यह एक भंग होता है । आयु बन्धके समय तिर्यचायुक्का वन्ध, तियंचायुका उदय और तिर्यच-तिर्यचायुका सत्त्व तथा मनुष्यायुका वन्ध, तिर्यचायुका उदय और मनुष्यतिचायुका सत्त्व ये दो भंग होते है । और बन्धकी उपरति होने पर तिर्थचायुका उदय और तिर्यच तिर्यचायुका सत्त्व तथा तिर्यचायुका उदय और मनुष्य-तिर्यंचायुका सन्त्र चे दो भंग होते हैं । कुल मिलाकर ये पांच भंग हुए। इसी प्रकार मनुष्य गतिकी अपेक्षा पांच भंग जानने चाहिये । इस प्रकार संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवस्थान में दस भंग हुए । तथा पर्याप्तक श्रसंज्ञी पचेन्द्रिय जीव दिर्यच ही होता हैं और इसके चारों आयुओं का बन्ध सम्भव है, त' यहां आयुके वे ही नौ भंग होते हैं जो सामान्य तिर्यत्रों के बतलाये हैं। इस प्रकार तीन जीवस्थानों में से किसके कितने भंग होते हैं यह तो बतला दिया । व शेष रहे ग्यारह जीवस्थान सो उनमें से प्रत्येक के पांच पांच भंग होते हैं, क्योंकि शेष जीवस्थानों के जीव निर्यच ही होते हैं और उनके देवायु तथा नरकायुका वन्ध नहीं होता, अतः वहां वन्धकाल से पूर्वका एक भंग, वन्धकाल के समय के दो भंग और उपरत वन्धकाल के दो भंग इस प्रकार कुल पांच भंग ही होते हैं यह सिद्ध हुआ ।