________________
१९०
सप्ततिकाप्रकरण अव जीवस्थानो में मोहनीय कर्मके भंग वतलाते हैंअहसु पंचसु एगे एग दुगं दस य मोहबन्धगए । तिग चउ नव उदयगए तिग तिग पन्नरस संतम्मि ॥३॥
अर्थ-पाठ, पाच और एक जीवस्थानमें मोहनीयके क्रमसे एक, दो और दस बन्धस्थान; तीन, चार और नी उदयस्थान तथा तीन, तीन और पन्द्रह सत्त्वस्थान होते हैं ।
विशेपार्थ-इस गाथा मे कितने जीवस्थानोमे मोहनीयके कितने कन्धस्थान कितने उदयस्थान और कितने सत्त्वस्थान होते हैं इस प्रकार संख्याका निर्देशमात्र किया है परन्तु वे, कौन कौन होते हैं यह नहीं बतलाया है। आगे इसीका खुलासा करते हैंपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, अपर्याप्तक वादर एकेन्द्रिय, अपर्याप्तक दो इन्द्रिय, अपर्याप्तक तीन इन्द्रिय, अपर्याप्तक चार इन्द्रिय, अपर्याप्त असंज्ञी पचेन्द्रिय और अपर्याप्त संजी पंचेन्द्रिय ये आठ जीवस्थान ऐसे हैं जिनमे एक मिथ्याघष्टि गुणस्थान ही होता है, अतः इनमें एक २२ प्रकृतिक वन्धस्थान होता है। यहां तीन वेद और दो युगलो की अपेक्षा ६ भंग होते है जिनका कथन पहले किया ही है। तथा इन आठों जीवस्थानोमे ८, ६ और १० प्रकृतिक तीन उदयस्थान होते हैं। यद्यपि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कमे से किसी एकके उदयके विना ७ प्रकृतिक उदयस्थान भी होता है पर वह इन जीवस्थानोमें नहीं पाया जाता, क्योकि जो जीव उपशम श्रेणीसे