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सप्ततिकाप्रकरण इतने कथनसे यह तो जान लिया जाता है कि अमुक जीवस्थानमें इतने बन्धस्थान इतने उदयस्थान और इतने सत्त्वस्थान होते हैं किन्तु वे कौन कौन हैं यह जानना कठिन है, अतः आगे उन्हीं का मयभंगोंके उक्त गाथाओके निर्देशानुसार विस्तार से विवेचन किया जाता है
सातो प्रकारके अपर्याप्तक जीव मनुष्यगति और तिर्यंचगति के योग्य प्रकृतियो का ही वन्ध करते हैं। यहां देवगति और नरकगतिके योग्य प्रकृतियो का बन्ध नहीं होता, अत. सातो अपर्याप्तक जीवस्थानोमे २८, ३१ और १ प्रकृतिक बन्धस्थान न होकर २३, २५, २६, २९ और ३० प्रकृतिक पाच ही बन्धस्थान होते है। सो भी इनमे मनुष्यगति और तिर्यंचगतिके योग्य प्रकृतियो का हो वन्ध होता है। यहां सव बन्धस्थानोके मिलाकर प्रत्येक जीवस्थानमे १३९१७ भंग होते हैं। तथा इन सात जीवस्थानो में से अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय और अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय इन दो जीवस्थानोमे २१ और २४ प्रकृतिक दो उदयस्थान होते हैं। सो इनमे से अपर्याप्त बादर एकेन्द्रियके २१ प्रकृतिक उदयस्थानमें तिर्यंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, अगुरुलघु, वर्णादि चार, एकेन्द्रिय जाति, स्थावर, बादर, अपर्याप्तक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशः कीर्ति और निर्माण इन इक्कीस प्रकृतियोका उदय होता है । यह उदयस्थान अपान्तराल गतिमें प्राप्त होता है। यहां भंग एक ही है, क्योकि यहां परावर्त्तमान शुभ प्रकृतियोका उदय नहीं होता। अपर्याप्तक सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके भी यही उदयस्थान होता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इसके बादरके स्थानमें सूक्ष्म प्रकृति का उदय कहना चाहिये। यहां भी एक हो, भंग है। तथा इस उदयस्थानमे औदारिक शरीर, हुण्ड संस्थान, उपघात तथा प्रत्येक