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जीवसमासोमे मंगविचार
१८७ क्योकि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवो के उच्च गोत्रकी उद्वलना देखी जाती है। फिर भी यह भंग संजी जीवोके कुछ काल तक ही पाया जाता है। सनी पचेन्द्रिय जीवस्थानमे दूसरा
और तीसरा भग प्रारम्भ के दो गुणस्थानों की अपेक्षा से कहा है । चौथा भंग प्रारम्भ के पाच गुणस्थानो की अपेक्षासे कहा है। पाचवां भग प्रारम्भके १० गुणस्थानो की अपेक्षासे कहा है। छठा भग उपशान्त मोहसे लेकर अयोगिकेवली के उपान्त्य समय तक होता है, अत इस अपेना से कहा है। तथा सातवां भंग अयोगिकेवली गुणन्थानके अन्तिम समय की अपेक्षासे कहा है। किन्तु गेप तेरह जीवस्थानो में उक्त सात भगों में से पहला, दूसरा और चौथा ये तीन भग हो प्राप्त होते हैं। इनमे से पहला भग अग्निायिक और वायुमायिक जीवोमें उच्च गोत्रकी उद्वलना के अनन्तर सर्वदा होता है किन्तु शेपमे से उन्हीं के कुछ काल तक होता है जो अग्निकायिक और वायुकायिक पर्याय से आकर अन्य पृथिवीकायिक पाढिमें उत्पन्न हुए हैं। तथा इन तेरह जीव. स्थानोमें एक नीच गोत्रका ही उदय होता है किन्तु वन्ध दोनोका पाया जाता है इसलिये इनमें दूसरा और चौथा भिंग भी वन जाता है। इस प्रकार वेदनीय और गोत्रके क्रिम जीवस्थानमें कितने भग सम्भव हैं इसका विवेचन किया । अत्र जीवस्थानो मे आयुकर्मके भग बतलानेके लिये भाष्य की गाथा उद्धृत की जाती है
'पन्नत्तापन्नत्तग ममणे पन्नत्त अयण सेसेसु ।
अठ्ठावीस दसगं नवग पणगं च आउस्स ।। अर्थात् 'पर्याप्त संत्री पंचेन्द्रिय, अपर्याप्त संजी पचेन्द्रिय, पर्याप्त असन्नी पचेन्द्रिय और शेप ग्यारह जीवस्थानों में आयु कर्मके क्रमश. २८,१०,९और ५ भंग होते हैं।'
आशय यह है कि पहले जो नारकी के ५, तिर्यचके ६ मनुष्य