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सप्ततिकाप्रकरण . कहलाते हैं उनके ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मके वन्ध, उदय और सत्त्व की अपेक्षा कोई भंग नहीं है, क्यो कि इन कर्मों की बन्ध, उदय और सत्त्वव्युछित्ति केवली होनेसे पहले हो जाती है । गाथामे जीवस्थानके लिये जो 'जीव सक्षेप' पद आया है सो जिन अपर्याप्त एकेन्द्रियत्व आदि धर्मों के द्वारा जीव संक्षिप्त अर्थात् संगृहीत किये जाते है उनकी जीवसंक्षेप संज्ञा है, इस प्रकार इस जीवसंक्षेप पद को ग्रन्थकारने जीवस्थान पढके अर्थमे ही स्वीकार किया है ऐसा समझना चाहिये। तथा गाथामें जो करण पद आया है सो उसका अर्थ प्रकृतमें द्रव्यमन लेना चाहिये, क्योकि केवल द्रव्यमनके रहने पर ही ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मका कोई विकल्प नही पाया जाता।
अब जीवस्थानोमे दर्शनावरण कर्मके भंग बतलाते हैंतेरे नव चउ पणगं नव संतेगम्मि भंगमेकारा ।
अर्थ-तेरह जीवस्थानोमे दर्शनावरण कर्मके नौ प्रकृतिक वन्ध, चार या पॉच प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्त्व ये दो भंग होते हैं तथा पर्याप्त संज्ञी पचेन्द्रिय इस एक जीवस्थानमें ग्यारह भंग होते हैं।
विशेषार्थ-प्रारम्भके तेरह जीवस्थानोमे दर्शनावरण कर्मकी किसी भी उत्तर प्रकृतिका न तो बन्धविच्छेद होता है, न उदयविच्छेद होता है और न सत्त्वविच्छेद होता है, पाँच निद्राओमें से एक कालमें किसी एकका उदय होता भी है और नही होता, अत. गाथामे इन जीवस्थानोमें ९ प्रकृतिक बन्ध, ४ प्रकृतिक उदय
और ९ प्रकृतिक सत्त्व तथा ९ प्रकृतिक बन्ध ५ प्रकृतिक उदय और ९ प्रकृतिक सत्त्व ये दो भंग बतलाये हैं। किन्तु पर्याप्त संज्ञी पचेन्द्रिय इस जीवस्थानमे गुणस्थान क्रमसे दर्शनावरण की नौ प्रकृतियो का बन्ध, उदय और सत्त्व, तथा इनकी व्युच्छित्ति यह