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नामकर्मके बन्धस्थान
१२७ संस्थान, वर्णादि चार, अगुरुलघु, पराघात, उपघात, उच्छास, स्थावर, आतप और उद्योतमेसे कोई एक, बादर, पर्याप्तक, प्रत्येक स्थिर और अस्थिरमेंसे कोई एक, शुभ और अशुभमेंसे कोई एक, दुर्भग, अनादेय, यश कीर्ति और अयशःकीर्तिमेसे कोई एक तथा निर्माण इन छब्बीस प्रकृतियोका बन्ध होता है, अत. इन छब्बीस प्रकृतियोके समुदायको एक छब्बीस प्रकृतिक बन्धस्थान कहते हैं। यह वन्धस्थान पर्याप्तक और वादर एकेन्द्रियके योग्य प्रकृतियोका आतप और उद्योतमेंसे किसी एक प्रकृतिके साथ बन्ध करनेवाले मिथ्यादृष्टि तिर्यंच, मनुष्य और देवके होता है। यहॉ भग सोलह होते है। जो आतप और उद्योतमेसे किसी एकका, स्थिर और अस्थिरमेंसे किसी एकका, शुभ और अशुभमें से किसी एकका तथा यश कीर्ति और अयश कीर्तिमेसे किसी एकका बन्ध होनेके कारण प्राप्त होते हैं। आतप और उद्योतके साथ सूक्ष्म और साधारणका बन्ध नहीं होता, अतः यहाँ सूक्ष्म
और साधारणके निमित्तसे प्राप्त होनेवाले भग नहीं कहे। इस प्रकार एकेन्द्रिय प्रायोग्य २३, २५ और २६ इन तीन बन्धस्थानोके कुल भग ४+२०+१६%=४० होते हैं। कहा भी है__ 'चत्तारि वीस सोलस भगा एगिदियाण चत्ताला ।'
अर्थात् एकेन्द्रिय सम्बन्धी २३ प्रकृतिक बन्धस्थानके चार, २५ प्रकृतिक बन्धस्थानके बीस और २६ प्रकृतिक बन्धस्थानके सोलह इस प्रकार कुल चालीस भग होते हैं। ___ द्वीन्द्रियके योग्य प्रकृतियोंको बाँधनेवाले जीवके २५, २९
और ३० ये तीन बन्धस्थान होते है। इनमेंसे पच्चीस प्रकृतिक बन्धस्थानमे-तिर्यंचगति, तिथंचगत्यानुपूर्वी, द्वीन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, वैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, सेवार्तसंहनन, औदारिक प्रांगोपांग, वर्णादिचार, अगुरुलघु, उपघात,