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वन्धस्थानत्रिकके सवेधभंग १७३ सत्त्वस्थान होते हैं। इसका विचार जिस प्रकार २३ प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाले जीवोके कर आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिये । मनुष्यगतिके योग्य २९ प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और तिवंच पचेन्द्रिय जीवोके तथा तिथंचगति और मनुष्यगनिके योग्य २९ प्रकृनियोका बन्ध करनेवाले मनुप्याके अपने अपने योग्य उज्यन्यानोके रहते हुए ७८ को छोड़ कर वे ही चार मत्त्वम्यान होते हैं। तियंच पचेन्द्रिय और मनुष्य गतिके योग्य २९ प्रकृनियो का बन्ध करनेवाले देव और नारकियोके अपने अपने उदयस्थानामें ९२ और ८८ ये दो ही सत्तास्थान होते हैं। किन्तु मनुष्यगतिके योग्य २९ प्रकृतियोंका वन्ध करने वाले मिथ्याष्टिनारकीके तीर्थकर प्रकृतिकी सत्ताके रहते हुए अपने पांच उदयस्थानोमे एक ८९ प्रकृतिक सत्वन्यान ही होता है, क्योंकि जो तीर्थकर प्रकृतिमहित हो वह यदि आहारक चतुष्क रहित होगा तो ही उसका मिथ्यात्वमे जाना सम्भव है, क्योकि तीर्थकर और आहारक चतुष्क इन दोनोका एक माय सत्व मिथ्यावष्टि गुणस्थान में नहीं पाया जाता ऐसा नियम है। अत ९३ मेसे आहारक चतुधक्के निकाल देने पर उस नारकीके ८९ का ही सत्त्व प्राप्त होता है।
(1) 'उमसंतिओन मिच्छो ।... - "तित्याहारा जुगव सव्व तित्यं ण मिच्छगादितिए। तस्सत्तकम्मियाणं तगुणठाण ण सभवदि ।-गो. क० गा० ३३३।
ये ऊपर जो उद्धरण दिये हैं इनमें यह बतलाया है कि मिध्यादृष्टिके तीर्थकर और आहारक चतुष्क इनका एक साथ सत्त्व नहीं पाया जाता। तथापि गोम्मटसार कर्मकाण्डके सत्त्वस्यान अधिकारकी गाथा ३६५ और ३६६ से इस यातका भी पता चलता है कि मिथ्याष्टिके भी तीर्थकर और श्राहारक चतुष्ककी सत्ता एक साय पाई जा सकती है, ऐसा भी एक मत