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सप्ततिकाप्रकरण तीर्थकर प्रकृतिके साथ देवगतिके योग्य २९ प्रकृतियोंका बंध करनेवाले अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्यके तो २१ प्रकृतियोका उदय रहते हुए ९३ और ८९ ये दो सत्त्वस्थान होते हैं। इसीप्रकार २५,२६,२७,२८,२९ और ३० इन उदयम्थानोंमे भी ये ही दोसत्त्वस्थान जानना चाहिये। किन्तु आहारकसयतो के अपने योग्य उदयस्थानोके रहते हुए एक ९३ प्रकृतिक सत्वम्थान ही जानना चाहिये । इस प्रकार सामान्य से २९ प्रकृतिक बन्धस्थान में २१ प्रकृतियोके उदयमे ७, २४ प्रकृतियोंके उदयमें ५, पञ्चीप्त प्रतियोके उदयमें ७, छब्बीस प्रकृतियोके उदयमे ७, २७ प्रकृतियोके उदयमें ६, २८ प्रकृतियोंके उदयमे ६, २९ प्रकृतियांके उदयमें ६, ३० प्रकृतियोके उदयमें ६ और ३१ प्रकृतियोके उदयमें ४ सत्त्वस्थान होते हैं। जिनका कुल जोड़ ५४ होता है। ___ तथा जिस प्रकार तियंचगतिके योग्य २९ प्रकृतियोका वन्ध करनेवाले एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, तिथंचपचेन्द्रिय, मनुष्य, देव
और नारकियोंके उदयस्थान और सत्वस्थानीका चिन्तन किया, उसी प्रकार उद्योतमहित तिथंचगतिके योग्य ३० प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले एकेन्द्रियादिकके उदयस्थान और सत्वस्थानोका चिन्तन करना चाहिये। उनमें ३० प्रकनियोको बाँधनेवाले देवके २१ प्रकृतिक उदयस्थानमें ९३ और ८९ ये दो सत्त्वस्थान होते हैं। तथा २१ प्रकृतियोंके उदयसे युक्त नारकीके ८९ यह एक ही सत्वस्थान होता है उसके ९३ प्रकृनिक मत्त्वम्थान नहीं होता। क्योंकि तीर्थकर और आहारक चतुष्क इनकी सत्तावाला जीव नारकियामे नहीं उत्पन्न होता । चूर्णिमे कहा भी है
'जम्म तित्थगराहारगाणि जुगवसति सो नेरइएमुन उववजइ।' __ अर्थात् जिसके तीर्थकर और आहारक चतुष्क इनका एक साथ सत्त्व है वह चारकियोमें नहीं उत्पन्न होता।'