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नामकर्मके बन्धस्थान
१३१ अन्तर्भाव पूर्वोक्त भंगोमें ही हो जाता है, इसलिये इन्हें अलगसे नहीं गिनाया है। इस वन्धस्थानमें एक उद्यात प्रकृतिके मिला देने पर तीस प्रकृतिक वन्धस्थान होता है। जिम प्रकार उनतीस प्रकृतिक वन्धस्थानमे मिथ्यावष्टि और सास्वादन सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा विशेषता बतला आये है उसी प्रकार यहां भी वही विशेषता समझना चाहिये। अत यहाँ भी सामान्यसे ४६०८ भग होते हैं। कहा भी है
'गुणतीसे तीसे वि य भङ्गा अट्टाहिया छयालसया ।
पचिंदियतिरिजोगे पणवीसे वधि भगिको ।' अर्थात् 'पचेन्द्रिय तिर्यचके योग्य उनतीस प्रकृतिक वन्धस्थानमें ४६०८, तीस प्रकृतिक वन्धस्थानमे ४६०८ और पच्चीस प्रकृतिक वन्धस्थानमें एक भग होता है। ___ इस प्रकार पचेन्द्रिय तिर्यचके योग्य तीन वन्धस्थानी के कुल भग ४६०८+४६०८+१=९२१७ होते हैं। इनमें एकेन्द्रियके योग्य बन्धस्थानो के ४० द्वीन्द्रियके योग्य वन्धस्थानोके १७, त्रीन्द्रिय के योग्य बन्धस्थानोंके १७ और चौइन्द्रियके योग्य वन्धस्थानोंके १७ भग मिलाने पर तियंचगति सम्बन्धी वन्धस्थानोंके कुल भङ्ग ९२१७+४०+५१-९३०८ होते हैं। ___ मनुप्यंगतिके योग्य प्रकृतियो को वाधनेवाले जीवके २५, २९ ओर ३० ये तीन वन्धस्थान होते हैं। इनमेंसे पच्चीम प्रकृतिक वन्धस्थान वही है जो अपर्याप्त द्वीन्द्रियके योग्य वन्ध करनेवाले जीवके कह आये हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहा मनुष्य. गति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और पचेन्द्रिय जाति ये तीन प्रकृतियां कहनी चाहिये। उनतीस प्रकृतिक बन्धस्थान तीन प्रकारका है।
(१) 'मणुसगदिणामाए तिण्णि हाणाणि तीक्षाए एगणीसाए पणुचीसाए ठाण चेदि।-जी०चू० हा० सू० २४,