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सप्ततिकाप्रकरण होने हैं। यहॉ पूर्वोक्त १२ भ्रूवोदय प्रकृतियोंमें देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रियजाति त्रस, वाटर, पर्याप्नक, सुभग और दुर्भगमें से कोई एक, आदेय और अनादेयमेसे कोई एक तथा यश कीर्ति और अयश कीर्तिमेसे कोई एक इन नौ प्रकृतियोंके मिला देनेपर २१ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ सुभग और दुर्भगमेसे किसी एकका, श्रादेय और अनादेयमेंसे किसी एकका तथा यशकीति और अयश कीनिर्मेसे किसी एकका उदय होनेसे इनकी अपेक्षा कुल आठ भन होते है। देवोके जो दुर्भग, अनादेय और अयशःकीर्ति इन तीन अशुभ प्रकृतियोंका उदय कहा है. सो यह पिशाच आदि देवोके जानना चाहिये। तदनन्तर इस उदयम्थानमें वैक्रिय शरीर, वैक्रिय आंगोपांग, उपघात, प्रत्येक
और ममचतुरस्रमंस्थान इन पांच प्रकृतियोंके मिला देनेपर और देवगत्यानुपूर्वी निकाल लेन पर शरीरस्थदेवके पच्चीम प्रकृतिक उदयम्थान होता है। यहाँ भी पूर्ववत् पाठ भन होते हैं। तदनन्तर इन उदयस्थानमै पराघात और प्रशस्त विहायोगति इन दो प्रकृतियोंके मिला देनेपर शरीर पर्याप्निसे पर्याप्त हुए जीवके २७ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी वे ही आठ भङ्ग होते है। देवोके अप्रशस्त विहायोगनिका उदय नहीं होता, अतः यहाँ उसके निमिनसे प्राप्त होनेवाले भङ्ग नहीं कहे । तदनन्तर प्राणापान पर्याप्जिसे पर्याप्त हुए जीवके उच्छासके मिला देने पर २८ प्रकृतिक उदयम्थान होता है। यहाँ भी वे ही आठ भग होते हैं। अथवा शरीर पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके पूर्वोक्त सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थानमै उद्योतके मिला देनेपर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी पूर्ववत् ८ भंग होते हैं। इस प्रकार २८ प्रकृतिक उदयस्थानके कुल भंग १६ होते हैं। तदनन्तर भाषा पर्याप्जिसे पर्याप्त हुए जीवके उछास सहित २८ प्रकृतिक उदय