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वन्धस्थानत्रिककै संवैधभंग अर्थ-जाम कर्मके वन्ध, उदय और सत्त्व प्रकृतिस्थान क्रमसे ८, १२ और १२ है। इनके श्रोध और आदेशसे जहाँ जितने सभव हो उतने विकल्प करना चाहिये।
विगेपार्थ-यद्यपि प्रथकार नामकर्मके वन्धस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थान पहले ही बनला आये है उसी से यह बात हो जाता है कि नामकर्मके बधस्थान ८ हैं, उठ्यस्थान १२ हैं और सत्त्वस्थान भौ १२ हैं। फिर भी ग्रन्थकारने यहाँ पर उनका पुन निर्देश उनके परस्पर सवेध भगोके सूचन करनेके लिये किया है। जिनके प्राप्त करनेके दो हो मार्ग हैं-एक ओघ और दूसरा श्रादेश।
ओघ सामान्यका पर्यायवाची है अत. प्रकृनमे ओधका यह अर्थ हुआ कि जिस प्ररूपणामें केवल यह बतलाया गया है कि अमुक वन्धस्थानका बन्ध करनेवाले जीवके अमुक उदयस्थान और श्रमुक सत्त्वस्थान होते है वह अोध प्ररूपणा है। तया आदेश विशेषका पर्यायवाची है, अत आदेश प्ररूपणामे मिथ्यावृष्टि
आदि गुणस्थान और गति यादि मार्गणाओमे बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्वस्थानोका विचार किया गया है। ग्रन्थकारने जो मूलमे ओघ और आदेशके अनुसार विभाग करनेका निर्देश किया है मा उससे इसी विषयकी सूचना मिलती है।
अब पहले ओघसे सवेध का विचार करते हैंनवपंचोदयसंता तेवीसे पएणवीस छब्बीसे। अह चउरट्ठवीसे नव सत्तुगतीस तीसम्मि ॥ ३१॥ .