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. 'सप्ततिकांप्रकरण बनता । ५५ प्रकृनियोका उद्घ रहते हुए २८ प्रकृनियोका बंध श्राहारक्मयत और वैक्रियशरीरको करनेवाले तिचंच और मनुष्योके होता है.यत यहाँ भी सामान्यसे ९२और ८८ ये दो ही सत्त्वस्थान होते हैं। इनमेंने आहारक संयतोके आहारक चतुष्कका सत्त्व नियमसे होता है, अन. इनके ९२ प्रकृतियोंका ही नत्व होगा। शेष जीवोंके ग्राहारक चतुष्कका मत्त्व होगा और नहीं भी होगा अतः इनके दोनों सत्त्वस्थान बन जाते हैं । २६, २७, २८ और. २९ प्रकृतियोंके. उद्यमें भी ये दो ही सत्वम्यान होते हैं। ३० प्रकृतिक उदयस्थानमें देवगनि या नरकगतिके योग्य २८ प्रकृतियोंका वध करनेवाले जीवोंके सामान्यसे ९२, ८९,८८ और ८६ ये कार सत्त्वस्थान हाने हैं। उनमेंसे ९२ और ८८ सत्वन्यानोंका विचार तो पूर्ववन ही है किन्तु शेष दो सत्त्वन्यानोके विषयमें कुछ विशेषता है। जो निम्नप्रकार है--किसी एक मनुष्यने नरकायुका वध करनेके पश्चात् वेदकसन्यग्दृष्टि होकर तीर्थकर प्रकृतिका वन्ध किया। अनन्तर मनुष्य पर्यायके अन्तमें वह सम्यक्त्वसे च्युत होकर मिव्यावष्टि हुआ तब उसके अन्तिम अन्तर्मुहूर्तमें तीर्थकर प्रकृतिका वन्ध न होकर. २८ प्रकृतियोंका ही वन्ध होता है और सत्तामें ८९ प्रकृतिया ही प्राप्त होती हैं। ऐसे जीवके आहारक चतुष्कका सत्त्व नियमसे नहीं होता इमलिये यहां ८९ प्रकृतियाँकी सत्ता कहीं है। तथा ९३ प्रकृतियोंमेंसे तीर्थकर, आहारक चतुष्क, देवनति, देवगत्यानुपूर्वी, नरकगति. नरकात्यानुपूर्वी और वैक्रियचतुष्क इन १३ प्रकृतियोंके बिना ८० प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। इस प्रकार ८० प्रकृतियोंकी सनावाला कोई एक जीव पंचेन्द्रिय तिचंच या मनुष्य होकर सब पर्याप्तियोंकी पूर्णताको प्राप्त हुआ। तदनन्तर यदि वह विशुद्ध परिणामवाला हुआ तो उसने देवगतिके योग्य २८ प्रकृतियोंका बन्ध किया और इस प्रकार देवद्विक और वैक्रिय