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वन्धस्थानत्रिकके सवेधभंग
१६९ का बन्ध करनेवाले जीवके २१ प्रकृतिक उदयस्थान क्षायिक सम्यया वेदक सम्यग्दृष्टि पचेन्द्रिय तिर्यच और मनुष्योके भवके अपान्तराल में रहते समय होता है । पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान आहारकसयतोके और वैक्रियशरीरको करनेवाले सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि मनुष्य और तिर्यंचोके होता है । २६ प्रकृतिक उदयस्थान क्षायिकसम्यग्दृष्टि या वेदकसम्यग्दृष्टि शरीररस्थ पचे"न्द्रिय तिर्यच और मनुष्योके होता है । २७ प्रकृतिक उदयस्थान आहारक सती र सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि वैकियशरीरको करनेवाले तिर्यच और मनुष्योके होता है । २८ और २९ प्रकृतिक उदवस्थान क्रमसे शरीरपर्याप्ति और प्राणापान पर्याप्त पर्याप्त हुए नायिकसम्यग्दृष्टि या वेदकसम्यग्दृष्टि तिर्यच और मनुष्योके तथा आहारकसयत, वैक्रियसयत और वैक्रियशरीरको करनेवाले सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि तियंच और मनुष्योके होते हैं । ३० प्रकृतिक उदयस्थान सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि तिर्यच और मनुष्योके तथा आहारकसयत और वैक्रिय सयतोके होता है । ३१ प्रकृतिक उदयस्थान सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि पचेन्द्रिय तिर्यंचोके होता है । नरकगतिके योग्य २८ प्रकृतियोका बन्ध होते समय ३० प्रकृतिक उदयस्थान मिथ्यादृष्टि पचेन्द्रिय तिर्यच और मनुष्योके होता है । तथा ३१ प्रकृतिक उदयस्थान मिथ्यादृष्टि पचेन्द्रिय तिर्यंचोके होता है। अब सत्त्वस्थानोकी अपेक्षासे विचार करने पर २८ प्रकृतियोका बन्ध करने वाले जीवोके सामान्यसे ९२,८९,८८ और ८६ ये चार सत्त्वस्थान होते हैं । उसमें भी जिसके २१ प्रकृतियोंका उदय हो और देवगतिके योग्य २८ प्रकृतियोका वन्ध होता हो उसके ९२ ओर ८८ ये दो ही सत्त्वस्थान होते हैं, क्यो कि यहा तीर्थकर प्रकृतिकी सत्ता नहीं होती । यदि तीर्थकर प्रकृतिकी सत्ता मानी जाय तो देवगतिके योग्य २८ प्रकृतिक वन्धस्थान नहीं