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सप्ततिकाप्रकरण: चैक्रियचतुष्क इन छह प्रकृतियोको उद्वलना हो जाने पर ८. प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। इसमेसे मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी उद्वलना होने पर ७८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। ये सात सत्त्वस्थान अक्षपकोकी अपेक्षा कहे । अब क्षपको की अपेक्षा सत्त्वस्थानोका विचार करते हैं -जब क्षपक जीव ९३ प्रकृतियोंमें से नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचगति, तियेचगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियजाति, द्वोन्द्रियजाति, ब्रोन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, स्थावर, आतप, उद्योत, सूक्ष्म और साधारण इन तेरह प्रकृतियोका क्षय कर देते हैं तव उनके ८० प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। जब ९२ प्रकृतिकयोमेंसे इनका क्षय कर देते हैं तब ७९ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । जब ८९ प्रकृतियोमेसे इनका क्षर कर देते है तब ७६ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । तथा जव ८८ प्रकृतियोमेसे इनका क्षय कर देते है तब ७५ प्रकृतिक सत्वस्थान होता है । अब रहे ९और ८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान सो इनमेसे मनुष्यगति, पचेन्द्रियजाति, म, वादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यश-कीर्ति
और तीर्थकर यह नौ प्रकृतिक सत्त्वस्थान है। यह तीर्थकरके अयोगिकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमे प्राप्त होता है। और इसमें से तीर्थकर प्रकृतिके घटा देने पर ८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। यह अतीर्थकर केवलीके अयोगिकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमै प्राप्त होता है। इस प्रकार गाथानुसार नाम कर्मके ये वारह सत्त्वस्थान जानना चाहिये।
अव नामकर्मके वन्धस्थान आदिके परस्पर संवेधका कथन करनेके लिये आगेकी गाथा कहते है
अठ्ठ य वारस वारस बंधोदयसंतपयडिठाणाणि ! ओहेणादेसेण य जत्थ जहासंभवं विभजे ॥ ३० ॥