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नामकर्मके वन्धस्थान
१३३ 'पणुवीसयम्मि एक्को छायालसया अडुत्तर गुतीसे ।
मणुतीसेऽट उ सव्वे छायालसया उ सत्तरसा॥' अर्थात् 'मनुष्यगतिके योग्य पच्चीस प्रकृतिक वन्धस्थानमें एक, उनतीम प्रकृतिक वन्धस्थानमें ४६०८ और तीस प्रकृतिक वन्धस्थानमे ८ भग होते हैं। ये कुल भंग ४६१७ होते हैं।'
देवंगतिके योग्य प्रकृतियोको वाधनेवाले जीवके २८, २९, ३० और ३१ ये चार वन्धस्थान होते हैं। उनमेंसे २८ प्रकृतिक बन्धस्थानमें-देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, पचेन्द्रियजाति, वैक्रियशरीर, वैक्रिय आगोपाग, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वर्णादि चार, अगुरुलघु, पराघात, उपघात, उच्छास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, वादर, पर्याप्तक, प्रत्येक, स्थिर और अस्थिरमेंसे कोई एक, शुभ और अशुभमेंसे कोई एक, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, यश. कीर्ति और अयश कीर्तिमेंसे कोई एक तथा निर्माण इन अट्ठाईस प्रकृतियोका बन्ध होता है । अत इनका समुदाय एक वन्धस्थान है। यह बन्धस्थान देवगतिके योग्य प्रकृतियोका वध करनेवाले मिथ्याष्टि, मास्वादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्याष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत
और सर्वविरत जीवोके होता है । यहा स्थिर और अस्थिरमेंसे किसी एकका, शुभ और अशुभमेंसे किसी एकका तथा यश कीर्ति और अयश कीर्तिमेंसे किसी एकका बन्ध होता है अत उक्त सख्याओका परस्पर गुणा करने पर २x२x२%D८ भग प्राप्त होते हैं। इस अट्ठाईम प्रकृतिक वन्धस्थानमें तीर्थकर प्रकृतिके मिलाने पर उनतीस प्रकृतिक वन्धस्थान होता है। तीर्थकर प्रकृतिका वन्ध अविरतसम्यग्दष्टि आदि गुणस्थानोमे ही होता है, अत. यह वन्धस्थान अविरतसम्यग्वष्टि आदि जीवोके ही वेधता है।
(१) 'देवगदिणामाए पच हाणाणि एकत्तीसाए तीसाए एगुणतीसाए अवीसाए एकस्मे द्वारा चेदि।-जी० चू० ट्ठा० सू. १५ ।