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ढळू
सुजविकाकरण
प्रकृतिको पुनः मत्ता हो सकती है पर जयको प्राप्त हुई प्रकृति की पुनः नचा नहीं होती । सचा दो प्रकारसे होती है वन्यसे और । पर वन्य और संक्रमका अन्योन्य सन्वन्त्र है । जिस सन्य जिला बन्ध होता हैं उस समय उनमें अन्य सजातीय प्रकृतिवतिक्रया संक्रमण होता है। ऐसी कृतिको पतद्ग्रह प्रकृति कहते हैं । जिसका अर्थ चार पड़नेवाले कर्मदत्तको ग्रहण करने वाही प्रकृति होता है । ऐसा नियम है कि संक्रमसे प्राप्त हुए कर्मइतना संक्रमावतिके बाद उदय होता है. अतः अनन्तानन्वोका एक आयनिके बाद उदय मानने में कोई आपत्ति नहीं है । यद्यपि नवीन बालिके बाद स्वावाकाल के भीतर भी पण हो सकता है और यदि ऐसी प्रकृति उच्च प्राप्त हुई तो उस अकर्तित कर्मवद्ध का उदय सुनवसे निशेष भी हो सकता है, अतः नवीन वे हुए को विशेषले ऋषाकालके भीतर भी उदीरणीइय हो सकता है, इनमें कोई बाधा नहीं आती। फिर भी पीछे जो संत्रा सगवान किया गया है उसमें इतनी विवना नहीं की कई है ।
पीछे जो नाव प्रकृतिक उदयस्थानक आये हैं उसमें नय और जुगुप्ता के या भय और अनन्तान्यों के या जुगुप्ता और
तन्वी के निलाने पर तीन नकारसे नौ प्रकृतियाँ उदय ग्राम होता है । यहाँ भी एक एक विकलमें पूर्वोक क्रमले मंग की एक एक चीती याम होती है। इस कार को प्रकृतिक उदयस्थानमें भी मंगांकी दीन चौत्रीसी जानना चाहिये |
दया चनी सात प्रकृतिक उदयत्थानमें भय, जुगुप्ता और अनन्ववीके मिटा देने पर दस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी पूर्वोच्च प्रकारसे संगोत्री एक चावली होती है। इस प्रकार सात प्रकृतिक उदचस्यानको एक चौवीसी, आठ प्रकृतिक