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बन्धस्थानत्रिकके संवेध भंग
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काल तक रहकर तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त कालतक चार प्रकृतिक सत्त्वस्थान प्राप्त होता है । अत चार प्रकृतिक वन्धस्थानमें २८, २४, २१, ११, ५ और ४ ये छहं सत्त्वस्थान होते हैं यह सिद्ध हुआ । व तीन, दो और एक प्रकृतिक वन्धस्थानोमेंसे प्रत्येकमे पाँच पॉच सत्त्वस्थान होते हैं इसका स्पष्टीकरण करते हैं -- एक बात तो सर्वत्र सुनिश्चित है कि उपशमश्र णीकी अपेक्षा प्रत्येक वन्धस्थानमे २८, २४ और २१ ये तीन सत्त्वस्थान होते हैं। विचार केवल पक गिकी अपेक्षा करना है। सो इस सम्बन्धमें ऐसा नियम है कि संज्वलन क्रोधकी प्रथम स्थिति एक आवलिप्रमाण शेष रहने पर वन्ध, उदय और उदीरणा इन तीनोकी एक साथ व्युच्छित्ति हो जाती है और तदनन्तर तीन प्रकृतिक वन्ध होता है परन्तु उस ममय सज्वलन क्रोधके एक आवलि प्रमाण प्रथम
(१) कर्मकाण्ड गाथा ६६३ में चार प्रकृतिक वन्धस्थानमें दो प्रकृतिक और एक प्रकृतिक ये दो उदयस्थान तथा २८, २४, २१, १३, १२, ११, ५ और ४ प्रकृतिक ये आठ सत्त्वस्थान बतलाये हैं। यथा
'दुगमेगं च य सतं पुन्दं वा श्रत्थि पणगदुगं ।'
इसका कारण बतलाते हुए गाथा ४८४ में लिखा है कि जो जीव स्त्रीवेद व नपुमकवेदके उदय के साथ श्रेणि पर चढ़ता है उसके स्त्रीवेद या नपुसकवेदके उदयके द्विचरम समयमें पुरुषवेदक बन्धव्युच्छिति हो जाती है । यही सबब है कि कर्मकाण्डमें चार प्रकृति वन्धस्थानके समय १३ और १२ प्रकृतिक ये दो सत्त्वस्थान और बतलाये हैं ।