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सप्ततिकाप्रकरण एक साथ क्षय करता है। किन्तु इसके भी स्त्रीवेदकी क्षपणाके समय पुरुषवेदकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है। इस प्रकार चूंकि स्त्रीवेद और नपुंसक वेदके उदयसे क्षपका णि पर चढ़े हुए जीवके या तो स्त्रीवेटकी क्षपणाके अन्तिम समयमें या स्त्रीवेद
और नपुसकवेदकी क्षपणाके अन्तिम समयमे पुरुषवेदकी वन्धव्युच्छित्ति हो जाती है अतः इस जीवके चार प्रकृतिक बन्धस्थानमें वेदके उदयके विना एक प्रकृतिका उदय रहते हुए ग्यारह प्रकृतिक सत्त्वस्थान प्राप्त होता है। तथा यह जीव पुरुपवेद और हास्यादि छहका क्षय एक साथ करता है अत. इसके पाँच प्रकृतिक सत्त्वस्थान न प्राप्त होकर चार प्रकृतिक सत्त्वस्थान प्राप्त होता है। किन्तु जो जीव पुरुषवेदके उदयसे क्षपकणी पर चढ़ता है उसके छह नोकपायोके क्षय होनेके समय ही पुरुपवेदकी बन्धव्युच्छित्ति होती है, अतः इसके चार प्रकृतिक वन्धस्थानमे ग्यारह प्रकृतिक सत्त्वस्थान नहीं प्राप्त होता किन्तु पाँच प्रकृतिक सत्त्वस्थान प्राप्त होता है। इसके यह सत्त्वस्थान दो समय कम दो प्रावलि
(१) कषायप्राभूतकी चूणिमें पाँच प्रकृतिक सत्त्वस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकारका काल एक समय कम दो श्रावलिप्रमाण बतलाया है। यथा
'पंचण्हं विहत्तिो केवचिर कालादो ? जहण्णुक्कस्सेण दो श्रावलियाओ समयूणाओ।
इसकी टीका जयधवलामें लिखा है कि क्रोधसज्वलन और पुरुषवेदके उदयसे क्षपकौणि पर चढे हुए जीवके सवेद भागके द्विचरम समयमें छह नोकषायोंके साथ पुरुषवेदके प्राचीन सत्कर्मका नाश होकर सवेद भागके अन्तिम समयमें पुरुषवेदके एक समय कम दो श्रावलि प्रमाण नवक समयप्रबद्ध पाये जाते हैं, इसलिये पाँच प्रकृतिक सत्त्वस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकारका काल एक समय कम दो श्रावलि प्रमाण प्राप्त होता है।