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बन्धस्थानोमे उदयस्थान
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विसंयोजना करके रह गया । क्षपरणाके योग्य सामग्रीके न मिलने से उसने मिथ्यात्व आदिका क्षय नहीं किया । अनन्तर कालान्तर मे वह मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ त वहाँ उसने मिथ्यात्वके निमित्त से पुन अनन्तानुवन्धी चतुष्कका बन्ध किया। ऐसे जीवके एक आवलिका प्रमाण कालतक अनतानुवधी का उदय नहीं होता किन्तु आवलिकाके व्यतीत हो जाने पर नियमसे होता है । अत मिथ्यादृष्टि जीवके अनन्तानुबन्धीके उदयसे रहित स्थान बन जाते हैं। यही मवव है कि सात प्रकृतिक उदयस्थानमें और भय या जुगुसाके उदयसे प्राप्त होनेवाले आठ प्रकृतिक उदयस्थानमें अनन्तानुबन्धीका उदय नहीं बतलाया ।
शका - किसी भी कर्मका उदय अवाधाकालके क्षय होने पर होता है और अनन्तानुन्धी चतुष्कका जघन्य अवाधाकाल अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अवाधाकाल चार हजार वर्ष है, त. वन्धावलिके बाद ही अनन्तानुवन्धीका उदय कैसे हो सकता है ?
समाधान- बात यह है कि वन्धसमय से ही अनन्तानुवन्धीकी सत्ता हो जाती है, और सत्ताके हो जाने पर प्रवर्तमान बन्धमे पतद्ग्रहता आ जाती है, और पतद्ग्रहपनेके प्राप्त हो जाने पर शेष समान जातीय प्रकृतिदलिकका सक्रमण होता है जो पतग्रहप्रकृतिरूपसे परिणम जाता है, जिसका सक्रमावलिके वाद उदय होता है, अत श्रावलिकाके वाद अनन्तानुवन्धी का उदय होने लगता है यह कहना विरोधको नहीं प्राप्त होता है ।
इस शका-समाधानका यह तात्पर्य है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्क विसंयोजनाप्रकृति है । विसयोजना वैसे तो है क्षय ही, किन्तु विसयोजना और क्षय में यह अन्तर है कि विसंयोजना के हो जाने पर कालान्तरमे योग्य सामग्री के मिलने पर विसयोजित
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