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सप्ततिकाप्रकरण सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्वष्टि जीवोके होते हैं, किन्तु इतनी विशेपता है कि २४ प्रकृतिक सत्त्वस्थान उन्हींके होता है जिन जीवोने अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना कर दी है। २३ और २२ प्रकृतिक मत्त्वस्थान केवल वेदक सम्यग्दृष्टि जीवीके ही होते हैं, क्योंकि आठ वर्षकी या इससे अधिककी आयुवाला जो वेदक सम्यम्वष्टि जीव क्षपणाके लिये उद्यत होता है उसके अनन्तानुवन्धी
और मिथ्यात्वका क्षय हो जाने पर २३ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। फिर इसीके सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय हो जाने पर २२ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। यह २२ प्रकृतियोकी सत्तावाला जीव सम्यक्त्व प्रकृतिका क्षय करते समय जब उसके अन्तिम भागमे रहता है और कदाचित् इसने पहले परभव सम्बन्धी आयुका वन्ध कर लिया हो तो मरकर चारो गतियोंमें उत्पन्न होता है। कहा भी है
'पट्ठवगो उ मरणूसो निट्ठवगो चउसु वि गर्हसु ।'
अर्थात् 'दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ केवल मनुष्य ही करता है किन्तु उसकी समाप्ति चारों गतियोमे होती है।' '
इससे सिद्ध हुआ कि २२ प्रकृतिक सत्त्वस्थान चारों गतियोमें प्राप्त होता है, किन्तु २१ प्रकृतिक सत्त्वस्थान तो क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोके ही प्राप्त होता है, क्योकि अनन्तानुवन्धी चार और तीन दर्शनमोहनीय इन सातके क्षय होने पर ही क्षायिक सम्यग्दर्शन होता है। इसी प्रकार आठ प्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए भी सम्यग्मिथ्यादृष्टि और. अविरतसम्यग्रष्टि जीवोके क्रमश पूर्वोक्त तीन और पाँच सत्त्वस्थान होते है, तथा नौ प्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए भी इसी प्रकार जानना चाहिये,, किन्तु अविरतोके नौ प्रकृतिक उदयस्थान वेदकसम्यग्दृष्टियोके ही होता है और वेदक