________________
११०
सप्ततिकाप्रकरण, . उदयस्थान होते हैं-७, ८, और ९ प्रकृतिक । अविरतमम्यग्दृष्टि जीवोके चार उदयस्थान होते हैं-६, ७, ८ और ९ प्रकृतिक। इनमेसे छह प्रकृतिक उदयस्थान उपशम सम्यग्दृष्टि या क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंके ही प्राप्त होता है। इनमेसे औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीवोके अट्ठाईस और चौवीस प्रकृतिक ये दो सत्त्वस्थान होते है। अट्ठाईस प्रकृतिक सत्त्वस्थान प्रथमोपशम सम्यक्त्वके समर होता है। जो जीव अनन्तानुबन्धीकी उपशमना करके उपशमश्रेणी पर चढ़कर गिरा है। उस अविरत सम्यग्दृष्टिके भी अट्ठाईस प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। तथा' जिसने अनन्तानुवन्धीकी उद्वलना की है उस ग्रीपशमिक अविरतसम्यग्दृष्टिके चौबीस प्रकृतिक सत्वस्थान होता है। किन्तु क्षायिकसम्यग्दृष्टिके इक्कीस प्रकृतिक सत्त्वस्थान ही होता है, क्योकि अनन्तानुवन्धी चतुष्क और तीन दर्शनमोहनीय इन सात प्रकृतियोके क्षय होने पर हो इसकी प्राप्ति होती है । इस प्रकार छह प्रकृतिक उदयस्थानमे २८, २४ और २१ ये तीन सत्त्वस्थान होते हैं। सम्यग्मिथ्यावृष्टि जीवोके सात प्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए २८. २७ और २४ ये तीन सत्त्वस्थान होते है। इनमेंसे अट्ठाईस प्रकृतिकयो की सत्तावाला जो जीव सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होता है उसके अट्ठाईस प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है, किन्तु जिस मिथ्यादृष्टिने सम्यक्त्वकी उद्वलना करके सत्ताईस प्रकृतिक सत्त्वस्थानको प्राप्त कर लिया, किन्तु अभी सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वलना नहीं की वह यदि मिथ्यात्वसे निवृत्त होकर परिणामोके निमित्तसे सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होता है तो उस सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके सत्ताईस
(१) सम्यग्मिध्यादृष्टिके २७ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है इस मतका “उल्लेख दिगम्वर परम्परामें कहीं दे नेमें नहीं पाया । गोम्मटसार कर्मकाण्ड में वेदककालका निर्देश किया है। उस कालके भीतर कोई भी मिथ्यादृष्ट