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सप्ततिकाप्रकरण
अव पदसंख्या बतलाते हैं
उत्तरिएगुत्तरिपयविंदसएहिं विनेयो ॥ १९ ॥
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अर्थ तथा ये संसारी जीव उनहत्तर सौ इकहत्तर अर्थात छह हजार नौ सौ इकहत्तर पढसमुदायोसे मोहित जानना चाहिये । विशेषार्थ — यहाँ मिथ्यात्व अप्रत्याख्यानावरण क्रोध आदि प्रत्येक प्रकृतिको पद और उनके समुदायको पदवृन्द कहा है । इसीका दूसरा नाम प्रकृतिविकल्प भी है। आशय यह है कि उपर्युक्त दम प्रकृतिक आदि उदयस्थानोमें जितनी प्रकृतियाँ हैं वे सब पढ़ हैं और उनके भेदसे जितने भंग होगे वे सब पढ़वृन्द या प्रकृतिविकल्प कहलाते हैं । प्रकृतमें इस प्रकार कुल भेट ६९७१ होते है । खुलासा इस प्रकार है-इस प्रकृतिक उदयस्थान एक है. उसकी इस प्रकृतियाँ हुई। नौ प्रकृतिक उदयस्थान छह हैं, त उनकी चौवन प्रकृतियाँ हुई। आठ प्रकृतिक उदयस्थान ग्यारह हैं, अत उनकी अठासी प्रकृतियाँ हुई। सात प्रकृतिक' उदयस्थान दस है, अत उनकी सत्तर प्रकृतियाँ हुई। छह प्रकृतिक उदयस्थान सात है, अत उनकी वयालीस प्रकृतियाँ हुई । पाँच प्रकृतिक उदयस्थान चार हैं, अतः उनकी वीस प्रकृतियाँ हुई। चार प्रकृतिक उदयस्थान एक है, अतः उसकी चार प्रकृतियों हुई । और दो प्रकृतिक उदयस्थान एक हैं, अतः उसकी दो प्रकृतियाँ हुई । अनन्तर इन सव प्रकृतियोको मिलाने पर कुल जोड़ १० + ५४ + ८८ + ७० + ४२+२०+४+ २ = २९० होता है । इन प्रकृतियो से प्रत्येमे चौबीस चौबीस भंग प्राप्त होते हैं, त २९० को २४ से गुणित कर देने पर ६९६० प्राप्त हुए । पर
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( १ ) सप्ततिकप्रकरण नामक पष्ट कर्मग्रन्थके टवेंमें यह गाथा 'नवतेसीयसएहि' इत्यादि गाथाके बाद दी है ।