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उदयस्थानोका काल
१०३ ये दस आदिक जितने उदयस्थान और उनके भंग वतलाये जिसके अनुसार सप्ततिकाप्रकरणमें ९९५ उदयविकल्स होते हैं। दूसरे प्रकारमें सप्ततिकाप्रकरणके ९८३ वाले प्रकारसे थोड़ा अन्तर पड़ जाता है। बात यह है कि यहाँ सप्ततिकाप्रकरणमें एक प्रकृतिक उदयके बन्धावन्धकी अपेक्षा ११ भग लिये हैं और पचसग्रहके सप्ततिकामें उदयकी अपेक्षा प्रकृतिमेदसे कुल ४ भग लिये है इसलिये १८३ मेंसे ७ घटकर कुल १७६ उदयविकल्प रह जाते हैं। किन्तु पचसग्रहके सप्ततिकामें तीसरे प्रकारसे उदयविकल्प गिनाते हुए गुणस्थानभेटसे उनकी संख्या १२६५ कर दी गई है। विधि सुगम है इसलिये उनका विशेष विवरण नहीं दिया है।
दिगम्बर परम्पराम सबसे पहले कमायपाहुडमें इन उदयविकल्पोंका उल्लेख मिलता है। वहाँ भी पञ्चसाह सप्ततिकाके दूसरे प्रकार के अनुसार ९७६ उदयविश्ल बतलाये हैं। कर्मकाण्डमें भी इनकी संख्या वतलाई है। पर वहाँ इनके दो भेद कर दिये हैं। एक पुनरुक्त भग और दूसरे अपुनरुक्त भंग। पुनरुत मग १२८३ गिनाये है। १२६५ तो वे ही हैं जो पञ्चसंग्रहके सप्ततिकामें गिनाये हैं। किन्तु कर्मकाण्डमें चार प्रकृतिकवन्धमें दो प्रकृतिक उदयकी अपेक्षा १२ भग और लिये हैं। तथा पञ्चसग्रहसप्ततिकामें एक प्रकृतिक उदयके जो पॉच भग लिये हैं वे यहाँ ११ कर लिये गये हैं। इस प्रकार पञ्चमग्रह सप्ततिकामे १८ मंग बढ़कर कर्मकाण्डमें उनकी संख्या १०८३ हो गई है । तथा कर्मकाण्डमें अपुनरुक्क भग ६७७ गिनाये हैं। सो यहाँ भी एक प्रकृतिक उदयका गुणस्थान मेदमे एक भग अधिक कर दिया गया है और इस प्रकार ६७६ के स्थानमें १७७ मग हो जाते हैं।
__ यद्यपि यहाँ हमें सख्याओंमें अन्तर दिखाई देता है पर वह विवक्षाभेद ही है मान्यता मेद नहीं। ___इसी प्रकार इस सप्ततिका प्रकरणमें मोहनीयके पदकुन्द दो प्रकारसे वतलाये हैं। एफ ६९७१ और दूसरे ६६४७ । जव चार प्रकृतिक वन्धके पमय कुछ काल तक दो प्रकृतिक उदय होता है इस मतको स्वीकार कर