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वन्धस्थानोंमें उदयस्थान
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जीव उपशम श्रेणिसे गिर कर सास्वादनभावको नहीं प्राप्त होता है क्योकि उसके अनन्तानुबन्धीका उदय सम्भव नहीं । और सास्वादन सम्यक्त्वकी प्राप्ति तो अनन्तानुवन्धीके उदयसे होती है, अन्यथा नहीं । कहा भी है
( १ ) यद्यपि यहाँ हमने श्राचार्य मलयगिरिको टीकाके अनुसार यह बतलाया है कि अनन्तानुबन्धो की विसयोजना करके जो जीव उपशमश्रेणि पर चढ़ता है वह गिरकर सास्वादन गुणस्थान को नहीं प्राप्त होता है । तथापि कर्मप्रकृतिक श्रादिके निम्न प्रमाणोंसे ऐसा ज्ञात होता है कि ऐसा जीव भी सास्वादन गुणस्थानको प्राप्त होता है । यथा
कर्मप्रकृति की चूरिंग में लिखा है
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चरितवसमया काउकामो जति वेयगसम्मद्दिट्ठी तो पुन्य प्रणताणुवधियो नियमा विसंजोएति । एएण कारणेण विरयाण अणताणुवंधिविसंजोयणा भन्नति । - ' कर्मप्र० चु० उपश० गा० ३० ।
श्रर्थात् जो वेदकसम्यग्दृष्टि जोव चारित्रमोहनीयको उपशमना करता है। वह नियमसे श्रनन्तानुवन्धी चतुष्ककी विसयोजना करता है । और इसी कारणमे विरत जीवोंके श्रनन्तानुबन्धीकी विसयोनना कही गई है ।
फिर आगे चलकर उसीके मूलमें लिखा है
'श्रासा वा वि गच्छेज्जा ।'- कर्मप्र० उपश० गा० ६२ । श्रर्थात् ऐसा जीव उपशमश्रेणिमे उतरकर सास्वादन गुणस्थानको भी प्राप्त होता है ।
इन उल्लेखोंसे ज्ञात होता है कि कर्मप्रकृतिके कर्नाका यही एक मत रहा है कि अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना किये विना उपशमश्रेणि पर श्रारोहण करना सम्भव नहीं, और वहाँ से उतरनेवाला यह जीव सास्वादन गुणस्थानको भी प्राप्त होता है । यद्यपि पचसग्रहके उपशमना प्रकरणसे कर्म प्रकृति के मतकी ही पुष्टि होती है किन्तु उसके सक्रमप्रकरणमे इसका