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सप्ततिकाप्रकरण
सत्त्वस्थानके प्राप्त होनेमें अन्तर्मुहूर्त काल लगता है, किन्तु जो जीव नपुंसक वेदके उदयके साथ क्षपकश्रेणी पर चढ़ता है, उसके नपुंसक वेदकी क्षपणाके साथ ही स्त्री वेदका क्षय होता है, अतः ऐसे जीवके बारह प्रकृतिक सत्त्वस्थान नहीं पाया जाता है। जिसने नपुंसक वेदके क्षयसे वारह प्रकृतिक सत्त्वस्थान प्राप्त किया है, उसके स्त्री वेदका क्षय हो जाने पर ग्यारह प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि छह नोकषायोके क्षय होनेमे अन्तर्मुहूर्त काल लगता है । इसके छह नोकपायोका क्षय हो जाने पर पाँच प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल दो समय कम दो श्रावलि प्रमाण है, क्योंकि छ नोकपायोके क्षय होने पर पुरुष वेदका दो समय कम दो आवलि काल तक सत्त्व देखा जाता है। इसके पुरुप वेदका क्षय हो जाने पर चार प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसके क्रोधसंज्वलनका क्षय हो जाने पर तीन प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । इसका भी जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार आगेके सत्त्वस्थानोका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होता है । इसके मान संज्वलनका क्षय हो जाने पर दो प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । इसके माया संज्वलनका क्षय हो जाने पर एक प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । इस प्रकार मोहनीय कर्मके कुल सत्त्वस्थान पन्द्रह होते हैं यह सिद्ध हुआ । इस प्रकार यद्यपि क्रमसे बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थानीका निर्देश कर आये हैं पर उनमें जो भग और उनके अवान्तर विकल्प प्राप्त होते हैं उनक | निर्देश नहीं किया जो कि आगे किया जाने वाला है । यहाँ ग्रन्थकर्त्ताने इस गाथामें 'जाग' क्रियाका प्रयोग किया है, जिससे विदित होता है कि आचार्य इससे यह ध्वनित करते हैं कि यह सब कथन गहन है, अत प्रमादरहित होकर उसको समझो ।
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