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मोहनीयकर्मके वन्धस्थानोके भंग ७७ कहना चाहिए। क्योकि इक्कीस प्रकृतियोके वन्धक सास्वादन सम्यग्द्रष्टि जीव ही होते हैं और वे स्त्री वेद या पुरुप वेदका ही वन्ध करते हैं नपुंसक वेदका नहीं, क्योकि नपुंसक वेदका वन्ध मिथ्यात्वके उदयकालमें ही होता है अन्यत्र नहीं। किन्तु सास्वादन सम्यग्दृष्टि जीवोके मिथ्यात्वका उदय होता नहीं, अत. यहाँ दो युगलोको दो वेदोसे गुणित कर देने पर चार भग होते है। इसमें से अनन्तानुबन्धी चतुष्कके घटा देने पर सत्रह प्रकृतिक वन्धस्थान होता है। किन्तु इस वन्धस्थानमै एक पुरुप वेद ही कहना चाहिये स्त्रीवेट नहीं, क्योकि सत्रह प्रकृतियोके बन्धक सम्यग्मिथ्यादृष्टि या अविरतसम्यग्दृष्टि जीव होते हैं, परन्तु इनके स्त्री वेदका वन्ध नहीं होता, क्योकि स्त्रीवेदका बन्ध अनन्तानुवन्धीके उदयके रहते हुए ही होता है अन्यत्र नहीं। परन्तु सम्यग्मिथ्यावष्टि और अविरत सम्यग्दृष्टि जीवोके अनन्तानुबन्धीका उदय होता नहीं, इसलिये यहाँ हास्य-रतियुगल और अरति-शोकयुगल इन दो युगलोके विकल्पसे दो भग प्राप्त होते हैं। इस वन्धस्थानमेंसे अप्रत्याख्यानावरण कपाय चतुष्कके कम कर देने पर तेरह प्रकृतिक वन्धस्थान होता है। यहां पर भी दो युगलांके निमित्तसे दो ही भग प्राप्त होते है, क्योकि यहाँ पर भी एक पुरुप वेदका ही वन्ध होता है, अत. वेदोके विकल्पसे जो भगोमें वृद्वि सम्भव थी, वह यहाँ भी नहीं है। इस वन्धस्थानमे से प्रत्याख्यानावरण कपाय चतुष्कके कम हो जाने पर नो प्रकृतिक वन्धस्थान होता है। यह नौ प्रकृतिक वन्धस्थान प्रमत्तसयत, अप्रमत्तसयत और अपूर्वकरण इन तीन गुणस्थानोमे पाया जाता है किन्तु इतनी विशेषता है कि अरति और शोक इनका वन्ध प्रमत्तसयत गुणस्थान तक ही होता है आगे नहीं, अत प्रमत्तसयत गुणस्थानमें इस स्थानके दो भंग होते हैं जो पूर्वोक्त ही हैं। तथा अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण