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श्रयुकर्मके संवेध भग
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जाना सम्भव है, क्योंकि जिस मनुष्यने देवायुका बन्ध कर लिया है उसका श्रमश्रेणी पर आरोहण करना सम्भव है । इस प्रकार मनुष्यगति अवन्ध, बन्ध और उपरतवन्धकी अपेक्षा श्रयुकर्म के कुल नौ भग होते है। तथा चारो गतियोमे सब भगो का योग ठोस होता है ।
पचसंग्रह के सप्ततिका सग्रह नामक प्रकरणकी गाथा १०६ से इस दूसरे मतको ही पुष्टि होती है। वृत्तमाध्यमे भी इसी मनकी पुष्टि हाती है । किन्तु पसग्रहके इसी प्रकरणको छडी गाथामें इन दानोंसे भिन्न एक अन्य मत भो दिया है । वहा बतलाया है कि नरकायुकी सत्ता चीये गुणस्थान तक, तिर्य चायुकी सत्ता पाचवे गुणस्थानतक देनायु की सत्ता ग्यारहवं गुणस्थानतक श्रीर मनुष्यायुकी सत्ता चौदहवे गुणस्थाननक पाई जाती है । यह मत गोमट्टधार कर्मकाण्ड के अभिप्राय से मिलता जुनता है । वहा उपरतवन्धको अपेक्षा नरकायु, तिर्यंचायु और मनुष्याकी सत्ता चीये गुणस्थानतक तथा देवयुको सत्ता ग्यारहवे गुणस्थाननक बतलाई है । पचसग्रहके उक्त मतसे भी यही बात फलित होती है । दिगम्बर परम्परा के अन्य ग्रन्थोंमें यही एक मत पाया जाता है | यहा पर हमने दूसरे मतको ही प्रधानता दो है क्योंकि श्वेताम्बर परम्परा में अधिकतर इमी मनकी मुख्यता देखी जाती है । मलयगिरि श्राचार्य ने भी इसी मतके श्राश्रयसे सर्वत्र वर्णन किया है ।
(१) 'नारयसुराउदो चड पचम तिरि मणुम्स चोद्दसमं । श्रसम्मटेमजोगी वसना सतयाऊण ॥ श्रव्यंवे इगि संतं दो दा बद्वार वज्ममागणाण | चउवि एकमुश्र पण नव नव पच इइ भेया ॥ - पञ्च स० सप्तति० गा०८, ९ । 'पण पत्र व पण भगा आउच उक्कंसु
विसरित्या - || - गो० कर्म० गा० ६५१ ।