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मोहनीय कर्मके वन्धस्थान
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होता तो भी उसकी पूर्ति पुरुष वेदसे हो जाती है । अत यहाँ सत्रह प्रकृतिक बन्धस्थान वन जाता है । इस स्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सांगर है । यहाँ तेतीस सागर तो अनुत्तर देवके प्राप्त होते हैं। फिर वहाँ से च्युत होकर मनुष्य पर्याय मे जब तक वह विरतिको नही प्राप्त होता है, उतना तेतीस सागरसे अधिक काल लिया गया है । अप्रत्यास्यानावरण चतुष्कका वन्ध चौथे गुणस्थान तक ही होता है,
त पूर्वोक्त सत्रह प्रकृतियोंमें से चार प्रकृतियों के कम कर देने पर देशविरत गुणस्थानमे तेरह प्रकृतिक वन्धस्थान प्राप्त होता है । देशविरत गुणस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटि वर्पप्रमाण होनेसे तेरह प्रकृतिक बन्धस्थान का काल भी उक्त प्रमाण प्राप्त होता है । प्रत्याख्यानावरण चतुष्कका बन्ध पाँचवे गुणस्थान तक ही होता है, श्रत. पूर्वोक्त तेरह प्रकृतियोंमे से उक्त चार प्रकृतियोंके कम कर देने पर प्रमत्तसयत गुणस्थानमे
१ - श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों हो परपराओं में अविरत सम्यग्दृष्टिका टत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर बतलाया है । किन्तु साधिकमे कितना काल लिया गया है इसका स्पष्ट निर्देश श्वेताम्बर टीका प्रन्थोंमें देखने मे नहीं आया। वहां इतना ही लिखा है कि अनुत्तरमे च्युत हुआ जीव जितने कालतक विरतिको नहीं प्राप्त होता उतना काल यहाँ साधिकमे लिया गया है । किन्तु दिगम्बर पराम्परा में यहाँ साधिक से है इसका स्पष्ट निर्देश किया है। धवला टीकामें अनुत्तर से च्युत होकर मनुष्य पर्याय में अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटिवर्षत क विरतिके बिना रह सकता है । श्रत इस हिसावसे श्रविरतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटिवर्ष अधिक तेतीस सागर प्राप्त होता है ।
कितना काल लिया गया बतलाया है कि ऐसा जीव