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मोहनीयकर्मके बन्धस्थान
५७ ९. मोहनीय कर्म अब पूर्व सूचनानुसार मोहनीय कर्मके वन्धस्थानो का कथन करते है
बावीस एकवीसा सत्तरसा तेरसेव नव पंच। चउ तिग दुगं च एक बंधाणाणि मोहस्स ॥१०॥
अर्थ-बाईस प्रकृतिक, इक्कीस प्रकृतिक, सत्रह प्रकृतिक, तेरह प्रकृतिक, नौ प्रकृतिक, पाच प्रकृतिक, चार प्रकृतिक, तीन प्रकृतिक, दो प्रकृतिक और एक प्रकृतिक इस प्रकार मोहनीय कर्मके कुल दस बन्धस्थान हैं।
विशेषार्थ-मोहनीय कर्मकी उत्तर प्रकृतिया अट्ठाईस हैं। इनमेसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनोका बन्ध नहीं होता अत. बन्धयोग्य कुल छब्बीस प्रकृतिया रहती हैं। इनमें भी तीन वेदोका एक साथ बध नहीं होता, किन्तु एक कालमे एक वेदका ही वन्ध होता हे। तथा हास्य-रतियुगल और अरति-शोकयुगल ये दोनो युगल भी एक साथ बन्धको नही प्राप्त होते किन्तु एक काल मे किसी एक युगलका ही वन्ध होता है। इस प्रकार छब्बीप्त प्रकृतियोमे से दो वेद और किसी एक युगलके कम हो जाने पर वाईस प्रकृतिया शेप रहती है जिनका वन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें
(५) दुगइगवीसा सत्तर तेरस नव पच चउर ति दु एगो । ववो इगि दुग चउत्यय पणउणवमेसु मोहस्स ॥-पंच स. सप्तति. गा० १६ । 'बावीसमेकवीस सत्तारस तेरसेव णव पच । चदुतियदुग च एक वहाणाणि मोहस्स ॥-गो० कर्म० गा० ४६३ । 'मोहणीयस्स कम्मस्स दस ठाणाणि वावीसाए एकवीसाए सत्तारसहं तेरसण्ह णवण्ह पचण्ह चदुण्ह तिण्ह दोण्ह एकिस्से हाणं चेदि । -जी० चू० ठा० सू० २० ।