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गोत्रकर्मके संवेध भग उच्च-नीचगोत्रका सत्त्व तथा (७) उच्चगोत्रका उदय और उच्चगोत्रका सत्त्व ये सात संवैध भंग होते हैं। इनमें से पहला भंग जिन अग्निकायिक व वायुकायिक जीवोने उच्चगोत्रकी उद्वलना कर दी है उनके होता है और ऐसे जीव जिन एकेन्द्रिय, विकलत्रय और पंचेन्द्रियतियेचोमे उत्पन्न होते हैं उनके भी अन्तर्मुहर्त काल तक होता है, क्योकि अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात् इन एकेन्द्रियादि शेप जीवीके उच्च गोत्रका वन्ध नियमसे हो जाता है। दूसरा और तीसरा भंग मिथ्यादृष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि इन दो गुणस्थानोमें पाया जाता है, क्योकि नीचगोत्रका बन्धविच्छेद दूसरे गुणस्थानमें हो जाता है। तात्पर्य यह है कि सम्यग्मिथ्यारष्टि आदि गुणस्थानोमे नीचगोत्रका वन्ध नहीं होता, परन्तु इन दोनो भगीका सम्बन्ध नीचगोत्रके वन्धसे है, अत इनका सद्भाव मिथ्यावष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि इन दो गुणस्थानोंमे बतलाया है। चौथा भंग प्रारम्भके पांच गुणस्थानोमें सम्भव है, क्योंकि नीचगोत्रका उदय पाचवे गुणस्थान तक ही होता है यत. इस भंगका सम्बन्ध नीचगोत्रके उदयसे है अत. प्रमत्तसयत आदि गुणस्थानोमें इसका प्रभाव वतलाया है। पाचवा भग प्रारम्भके दस गुणस्थानोमे सम्भव है, क्योकि उच्चगोत्रका वन्ध सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान तक ही होता है। यत. इस भंगमें उच्चगोत्रका बन्ध विवक्षित है, अत आगेके गुणस्थानोमे इसका निषेध किया। छठा भग उपशान्तमोह गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणम्यानके द्विचरम समय तक होता है, क्योकि नीचगोत्रका सत्त्व यहीं तक पाया जाता है। यत इम भगमें नीचगीत्रका सत्त्व
(१) 'वघो श्रादुगदसम उदश्रो पण चोइस तु जा ठाणं । निचुत्रगोसझम्माण संतया होति सम्वेसु ॥'-पञ्चम० सप्तति० गा० १५ ।