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गोत्रकर्मके संवैध भंग
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तीनसे गुणा कर दे और जहां जो लब्ध प्राप्त हो उसमें से एक कम बंधनेवाली आयु सख्या घटा दे तो प्रत्येक गतिमें आयुके अन्ध, बन्ध और उपरतवन्धकी अपेक्षा कुल भंग प्राप्त हो जाते हैं। यथा-नरक गतिमें दो आयुओका बन्ध होता है अत. दो को तीनसे गुणित कर देने पर छह प्राप्त होते हैं। अब इसमें से एक कम वधनेवाली योकी सख्या एकको कम कर दिया तो नरकगतिमे पाच भंग आ जाते है । तिर्यच गतिमे चार आयुओका चन्घ होता है अत चारको तीनसे गुणा कर देने पर वारह प्राप्त होते है। इसमें से एक कम बधनेवाली आयुको संख्या तीनको घटा दिया तो तिर्यचगतिमे नौ भग आ जाते हैं । इसीप्रकार मनुष्यगतिमे नौ और देवगतिमें पाच भग ले आना चाहिये । ८. गोत्रकर्मके संवेध भंग
अव गोत्र कर्मके बन्धादि स्थान और उनके सवेध भगोंका विचार करते हैं - गोत्र कर्मके दो भेद हैं, उच्चगोत्र और नीचगोत्र । इनमे से एक जीवके एक कालमे किसी एकका वन्ध और किसी एकका उदय होता है । जो उच्च गोत्रका बन्ध करता है उसके उस समय नीच गोत्रका बन्ध नहीं होता और जो नीच गोत्रका वन्ध करता है उसके उस समय उच्च गोत्रका वन्ध नहीं होता । इसी प्रकार उदयके विषय में भी समझना चाहिये। क्योंकि ये दोनो वन्ध और उदय इन दोनो की अपेक्षा परस्पर विरोधिनी प्रकृतिया है, अत. इनका एक साथ बन्ध व उदय सम्भव नहीं । किन्तु सत्ताके विपयमें यह बात नहीं है, क्योंकि दोनो प्रकृतियों की एक साथ सत्ता पाई जाने में कोई विरोध नहीं श्रेाता है । फिर भी इस
(१) 'णीचुच्चा गदरं वधुदया होंति संभवद्वाणे । दो सत्ता जोगि त्तिय चरि उच्च हवे सत्त ॥-गो० कर्म० गा० ६३५ ।
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