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सप्ततिकाप्रकरण होता है। इस वाईस प्रकृतिक वधस्थानके कालकी अपेक्षा तीन भंग हैं, अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । इनमें से अभव्योंके अनादि-अनन्त विकल्प होता है, क्योकि उनके कभी भी वाईस प्रकृतिक बन्धस्थानका विच्छेद नही पाया जाता। भव्योके अनादि-सान्त विकल्प होता है, क्योकि इनके कालान्तरमे बाईस प्रकृतिक वन्धस्थानका विच्छेद सम्भव है। तथा जो जीव सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुए हैं और कालान्तर में पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त हो जाते हैं उनके सादि-सान्त विकल्प होता है, क्योंकि कादाचित्क होनेसे इनके वाईस प्रकृतिक वन्ध स्थानका आदि भी पाया जाता है और अन्त भी। इनमें से सादि-सान्त भंगकी अपेक्षा बाईस प्रकृतिक बन्धस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोन अपार्ध पुद्गल परावर्त प्रमाण होता है। उपर्युक्त वाईस प्रकृतियोमें से मिथ्यात्वके कम कर देने पर इक्कीस प्रकृतिक बन्धस्थान प्राप्त होता है। जो सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमे होता है । यद्यपि यहॉनपुंसकवेदका भी बन्ध नहीं होता तो भी उसकी पूर्ति स्त्रीवेद या पुरुप वेदसे हो जाती है। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छः श्रावलि है, अतः इस स्थानका भी उक्त प्रमाण काल प्राप्त होता है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कका दूसरे गुणस्थान तक ही बन्ध होता है आगे नहीं, अत' उक्त इक्कीस प्रकृतियोमें से इन चार प्रकृतियोके कम कर देने पर मिश्र और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें सत्रह प्रकृतिक वन्धस्थान प्राप्त होता है। यद्यपि इन दोनो गुणस्थानोंमें स्त्री वेदका बन्ध नहीं
(१) 'देसूणपुन्चकोडी नव तेरे सत्तरे उ तेत्तीसा। बावीसे भंगतिगं ठितिसेसेसुं भुहुतंतो ॥-पंचसं० सप्तति० गा० २२ ।