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विषयविभाग प्रकार मूल और उत्तर प्रकृतियोंके विषयमें अनेक भग जानना चाहिये।
विशेपार्थ-प्रथकारने गाथाके पूर्वार्धमें शिष्यद्वारा यह शका उपस्थित कराई है कि कितनी प्रकृतियोका वन्ध होते समय कितनी प्रकृतियोका उदय होता है, आदि । तथा गाथाके उत्तरार्धमें शिष्य की उपर्युक्त शंकाका उत्तर देते हुए कहा है कि मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृतियोके विपयमे अनेक भग जानना चाहिये । इस प्रकार इस गाथाके वाच्यार्थका विचार करने पर उससे हमें स्पष्टत विपय विभागकी सूचना मिलती है। मुख्यतया इस प्रकरणमें मूल प्रकृतियो और उत्तर प्रकृतियोके वन्ध प्रकृतिस्थान, उदय प्रकृतिस्थान और सत्त्व प्रकृतिस्थानोका तथा उनके परस्पर सवेध
और उससे उत्पन्न हुए भगोका विचार किया गया है। अनन्तर उन्हे यथास्थान जीवस्थान और गुणस्थानोंमे घटित करके बतलाया गया है। इसी विषयविभागको ध्यानमें रखकर मलयगिरि आचार्य सबसे पहले आठ मूल प्रकृतियोके वन्धप्रकृतिस्थान, उदय प्रकृतिस्थान और सत्त्वप्रकृति स्थानोका कथन करते हैं, क्योकि इनका कथन किये विना आगे तीसरी गाथामें बतलाये गये इन स्थानोके सवेधका सरलतासे ज्ञान नहीं हो सकता है। इसके साथ ही साथ उन्होने प्रसगानुसार इन स्थानोके काल और स्वामी का भी निर्देश किया है।
वन्धस्थान-आठ प्रकृतिक, सात प्रकृतिक, छह प्रकृतिक और एक प्रकृतिक इस प्रकार मूल प्रकृतियोके कुल बन्धस्थान चार (१) 'सवेध' परस्परमेककालमागमाविरोधेन मीलनम् ।'
- फर्मप्र० बन्धोद० प० ६५