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सप्ततिकाप्रकरण प्रकृतिस्थानोंके परस्पर संवेध का और उसके स्वामित्वका कथन किया। अब उत्तर प्रकृतियोकी अपेक्षा वन्ध, उदय और सत्व प्रकृतिस्थानोके परस्पर सवेधका कथन करते हैं। उसमें भी पहले जानावरण और अन्तराय कर्मकी अपेचा कथन करते है
बंधोदयसंतसा नाणावरणंतराइए पंच । बंधोवग्मे वि तहा उदसंता हुति पंचेव ॥६॥ अथ-बानावरण और अन्तराय इन दोनोमे से प्रत्येककी अपेक्षा पाँच प्रकृतियोका बन्ध, पाँच प्रकृतियोका उदय और पाँच प्रकृतिगेका सत्त्व होना है। तथा बन्धके अभावमे भी उन्य और सत्त्व पाँच पॉच प्रकृतियोका होता है।
विशेषार्थ-जानावरण और उसकी पाँची उत्तर प्रकृतियोंका वन्ध सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान तक होता है । इसी प्रकार अन्तराय
और उसकी पाँची उत्तर प्रकृतियोका बन्धे सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान तक होता है, क्योकि आगममे जो सेतालीस ध्रुववन्धिनी प्रकृनियाँ गिनाई हैं, उनमें ज्ञानावरणकी पाँच और अन्तरायकी पाँच इस प्रकार ये दस प्रकृतियाँ भी सम्मिलित है। तथा इनकी वन्ध व्युच्छित्ति दसवे गुणस्थानके अन्तमे और उदय तथा सत्त्वव्युच्छित्ति बारहवे गुणस्थानके अन्तमें होती है। अतः इन दोनो कमि से प्रत्येककी अपेक्षा दसर्व गुणस्थान तक पाँच प्रकृतिक बन्ध, पाँच प्रकृतिक उदय और पॉच प्रकृतिक सत्त्व यह एक भंग होता है। तथा ग्यारहवे और वारहवे गुणस्थानमें पाँच प्रकृतिक
(१) 'सेग नाणतराएतु ॥ ६ ॥ नाणवरायवन्धा आसुहुमं उदयसंतया खाण.. ॥७॥'-पञ्चसं० सप्ततिः । वयोदयकम्मंसा णाणावरणतरायिए पंच । वघोपरमे वि तहा उदयसा होति पंचेव ॥'-गो० कर्म० गा० ६३० ।