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सप्ततिकाप्रकरण
होता है जिसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा चार प्रकृतिक सत्त्वस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है, क्योकि यह स्थान क्षीणमोह गुणस्थानके अन्तिम समयमें ही पाया जाता है ।
दर्शनावरण कर्मके उदयस्थान दो हैं-चार प्रकृतिक और पाँच प्रकृतिक । चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण इन चारका उदय क्षीणमोह गुणस्थान तक निरंतर पाया जाता है अत इन चारोका समुदायरूप एक उदयस्थान है । इन चार प्रकृतियों में निद्रादि पाँचमेसे किसी एक प्रकृतिके मिला देने पर पाँच प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ छ. प्रकृतिक आदि उदय स्थान सम्भव नहीं, क्योकि निद्रादिकमे से दो या दो से अधिक प्रकृतियोका एक साथ उदय नहीं होता किन्तु एक काल मे एक प्रकृतिका ही उदय होता है । दूसरे निद्रादिक ध्रुवोदय प्रकृतियाँ नहीं हैं, क्योकि उदय योग्य कालके प्राप्त होने पर ही इनका उदय होता है, अतः यह पाँच प्रकृतिक उदयस्थान कदाचित् प्राप्त होता है । दर्शनावरण कर्मके वन्ध, उदय और सत्त्वस्थानी के परस्पर सवेधसे उत्पन्न हुए भंगो का कथन करते है -
वीयावरणे नवबंधगेसु चउ पंच उदय नव संता । छच्वंउवंधे चेवं च बंधुदए छलंसा य ॥ ८ ॥ उवरयवंधे चउ पण नवंस चउरुदय छच चउसंता ।
(१) 'चपणउदो वधेसु तिसु वि श्रन्वधगे वि उवसते । नव सतं व उइण्णसताइ चउखी ॥ खवगे सुहुमंमि चऊबन्धमि श्रवघमि खीणम्मि । छस्सतं चउरुदत्रो पंचण्ह वि केइ इच्छति ॥ -- पञ्चस० सप्ताति० गा० १३, १४ । 'विदियाचरणे गववघगेसु चदुपचउदय गाव सत्ता । छव्वधगेसु (छचउवधे ) एवं तह चटुवधे छडंसा य ॥ उवरदवंवे चदुपच उदक गणव छच्च सत्त चदु जुगलं । - गो० कर्म० गा० ६३१, ६३२ ।