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सप्ततिकाप्रकरण आचार्य केवल इतना ही संकेत करते हैं कि 'क्षपकश्रेणी पर चढ़ने वाला जीव आयु और वेदनीय कर्मको छोड़कर उदय प्राप्त शेप सब कर्मों की उदीरणा करता है। पर इसपर टीका करते हुए वीरसेन स्वामी लिखते हैं कि क्षकश्रेणिवाला जीव पॉच ज्ञानावरण और चार दर्शनावरणका नियमसे वेदक है किन्तु निद्रा और प्रचलाका कदाचित् वेदक है, क्योंकि इनका कदाचित् अव्यक्त उदय होनेमे कोई विरोध नहीं आता। अमितिगति आचार्यने भी अपने पञ्चसंग्रहमें यही मत स्वीकार किया है कि क्षपकरणीमें और क्षीणमोहमे दर्शनावरणकी चार या पांच प्रकृतियोंका उदय होता है। और इसलिये उन्होंने तेरह भंगोका उल्लेख भी किया है। नेमिर्चन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीका भी यही मत है। दिगम्बर परम्पराकी मान्यतानुसार चार प्रकृतिक वन्ध, पांच प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक सत्त्व यह एक भंग तो नौवें और दसवे गुणस्थानमे बढ़ जाता है। तथा पांच प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक सत्त्व यह एक भंग क्षीणमोह गुणस्थानमे बढ़ जाता है। इस प्रकार दर्शनावरण कर्मके संवेध भंगोका कथन करते समय जो ग्यारह भंग वतलाये हैं उनमें इन दो भंगोके मिला देने पर दिगम्बर मान्यतानुसार कुल तेरह भंग होते हैं।
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(१) आउगवेदणीयवज्जाण वेदिज्जमाणाणं कम्माणं पवेसगो।'--क० पा० चु० (क्षपणाधिकार)। (२) पचण्हं णाणावरणीयाणं चदुण्हं दसणावरणीयाण णियमा वेदगो, गिद्दापयलाणं सिया, तासिमवत्तोदयस्स कदाई संभवे विरोहाभावादो। जयध० (क्षपणाधिकार ) ( ३ ) द्वयोर्नव द्वयो। षड्वं चतुर्पु च चतुष्टयम् । पञ्च पञ्चसु शुन्यानि भनाः सन्ति त्रयोदश ।' पञ्च० अमि० श्लो० ३८८ । (४) देखो ३२ पृष्ठ की टिप्पणी ।