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दर्शनावरण कर्मके सम्बन्धमे मतान्तर
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यहाँ दर्शनावरण कर्मकी उत्तर प्रकृतियोंके जो ग्यारह संवैध भग बतलाये गये हैं उनमे (१) चार प्रकृतिक वन्ध, चार प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक सत्त्व (२) चार प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक सत्त्व तथा ( ३ ) चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्त्व ये तीन भंग भी सम्मिलित हैं। इनमें से पहला भग क्षपकश्रेणी के नौवें और दसवे गुणस्थानमें होता है और दूसरा तथा तीसरा भग क्षीणमोह गुणस्थानमें होता है। इससे मालूम पड़ता है कि इस ग्रन्थके कर्ता का यही एक मत रहा है कि क्षपकश्रेणी में निद्रा और प्रचला प्रकृतिका उदय नहीं होता । मलयगिरि आचार्यने सत्कर्म ग्रन्थका एक गोथाश उद्धृत किया है । उसका भी यही भाव है कि 'क्षपकश्रेणी मे और क्षीणमोह गुणस्थान मे निद्राद्विकका उदय नहीं होता ।' कर्मप्रकृतिकार तथा पञ्चसग्रहके कर्ताका भी यही मत है किन्तु पञ्चसंग्रह के कर्ता 'क्षपकश्रेणीमे और क्षीणमोह गुणस्थान मे पाँच प्रकृतिका भी उदय होता है' इम दूसरे
तसे परिचित अवश्य थे। जिसका उल्लेख उन्होने 'पंचरह वि as इच्छति' इस रूपसे किया है । मलयगिरि आचार्यने इसे कर्मस्तकारका मत बतलाया है । इस प्रकार हम देखते हैं कि इस परस्पराने कर्मम्तवकारके सिवा प्राय भव कार्मिकोका यही एक मत रहा है कि क्षपक श्रेणी में और क्षीणमोह गुणस्थान में निद्राद्विकका उदय नहीं होता । किन्तु दिगम्बर परम्परामें सर्वत्र विकल्प वाला मत पाया जाता है। कसायपाहुडकी चूर्णिमे यतिवृषभ
(१) 'निद्दादुगस्स उदश्रो स्त्रीरागखवगे परिश्वज ।' - मल० सप्तति ० टी० पृ० १५८ । ( २ ) निद्दापयलाएं खीणरागखवगे परिश्वज || - कर्मप्र ० उ० गा० १० । (३) देखो ३२ पृष्ठ की टिप्पणी । ( ४ ) 'कर्मस्तवकार • मतेन पञ्चानामप्युदयो भवति । पञ्च सं० सप्ततिः टी० गा० १४ ।
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