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सप्ततिकाप्रकरण क्योंकि जो जीव उपशान्तमोह गुणम्यानसे च्युत होकर अन्तमुहर्त कालके भीतर पुनः उपशान्तमोही या क्षीणमोही हो जाता है उसके उक्त भंगका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । तथा जो जीव अपार्ध पुदल परावर्त कालके प्रारम्भमें सम्यग्दृष्टि होकर और अशमश्रेणी पर चढ़कर उपशान्तमाह हो जाता है। अनन्तर जब ससारमें रहनेका काल अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है, तव क्षपकश्रेणी पर चढ़कर क्षीणमोह हो जाता है, उसके उक्त भगका उत्कृष्ट काल देशोन अपार्ध पुदल परावर्त प्रमाण प्राप्त होता है । तथा पाँच प्रकृतिक उदय और पाँच प्रकृतिक मत्त्व इस दूसर भंगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योकि यह भंग उप्रशान्त माह गुणस्थानमे भी होता है और उपशान्तमोह गुणम्यानका जघन्य काल एक समय है, अत इस भंगका जघन्य काल एक समय बन जाता है। तथा उपशान्तमोह या क्षीणमोह गुणस्थानका उत्कृष्ट काल अन्नमुहूर्त है, अतः इस भंगका उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त बन जाता है।
___५. दर्शनावरण कर्मके संवैध भंग अव दर्शनावरण कर्म की उत्तर प्रकृनियो की अपेक्षा बन्धादि न्यानो का कथन करने के लिये आगेकी गाथा कहते हैं ।
वंधस्स य संतस्स य पगइट्टाणा ितिन्नि तुल्लाहै। उदयहाणा: दुवे चउ पणगं दंसणावरणे ॥७॥
(१)'नव छचउहा वज्मइ दुगइसमेण दसणावरणं । नव वायरम्मि सन्तं छक्क वटरो य खीणमि ॥ दंशासनिदंमाउदो समयं तु होड ना खायो । जाव पमत्तो नवण्ड उदयो छम् चउसु ना खीणो।- पञ्चस० सप्तनि० गा० १० १२ । 'गव क चदुई च च विदियावरणस्म बंधन: