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दर्शनावरण कर्मके वन्धस्थान आदि
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अर्थ-दर्शनावरण कर्मके नौ प्रकृतिक, छहप्रकृतिक और
चार प्रकृतिक ये तीन वन्धस्थान और ये ही तीन सत्त्वस्थान होते है । किन्तु उदयस्थान चारप्रकृतिक और पांच प्रकृतिक ये दो होते हैं ।
विशेपार्थ - दर्शनावरण कर्मके वन्धस्थान तीन हैं-नौप्रकृतिक, छप्रकृतिक और चार प्रकृतिक । नौप्रकृतिक वन्धस्थानमें दर्शनावरण कर्मकी सव उत्तर प्रकृतियोका बन्ध होता है। छह प्रकृतिक बन्धस्थान में स्त्यानर्धि तीनको छोड कर छह प्रकृतियो का बन्ध होता है और चार प्रकृतिक वन्धस्थानमे निद्रा आदि पाँच प्रकृतियोको छोडकर शेष चार प्रकृतियो का बन्ध होता है। नौ प्रकृतिक वन्यस्थान मिथ्यादृष्टि और सास्वादन गुणस्थान में होता है। छह प्रकृतिक बन्धस्थान सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अपूर्वकरण गुणस्थानके पहले भाग तक होना है और चार प्रकृतिक वन्धस्थान
पूर्वकरण गुणस्थानके दूसरे भागसे लेकर सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान तक होता है। नौ प्रकृतिक वन्धस्थान के कालकी अपेक्षा तीन भग है - श्रनादि-अनन्त, श्रनादि- सान्त और सादि-सान्त । इनमे से नादि - अनन्त विकल्प भव्योके होता है, क्योकि भव्यों के नौ प्रकृतिक बन्धस्थानका कभी भी विच्छेद नहीं होता । अनादि-मान्त विकल्प भव्योके होता है, क्योकि इनके नौ प्रकृतिक वन्धस्थानका कालान्तरमे विच्छेद
पाया जाता है । गाणि । * ॥ ४५६ ॥ एव सासणो त्ति वधो छच्चेव श्रपुत्रपढमभागोत्ति । चत्तारि हाँति तत्तो हुमकमायस्म चरिमो त्ति ॥ ४६० ॥ खीणो त्ति चारि उदया पचसु हासु दोसु हिासु । एके उदय पत्ते सीणटुचरिमो त्ति पचुदया ॥ ४६६ ॥ मिच्छादुवसतो त्तिय श्रेणियटीसवगपदमभागो ति । गवसत्ता स्त्रीणस्स दुरिमो त्तिय दूवरिमे ॥ ४६२ ॥ - गो० कर्म० ।