________________
विषयनिर्देश वन्धस्थान आदिका और उनके सवेध भंगोका कथन करनेवाले हैं इसलिये मलयगिरि आचार्यने 'सिद्वपद' का दूसरा अर्थ जीवस्थान
और गुणस्थान किया है । तात्पर्य यह है कि इस ग्रन्थमें या अन्यत्र वन्ध और उढयादिका कथन करनेके लिये जीवस्थान और गुणस्थानोका आश्रय लिया गया है, अत इसी विवक्षासे टीकाकारने 'सिद्धपट'का यह दूसरा अर्थ किया है। __उपर्युक्त विवेचनसे यद्यपि हम यह जान लेते हैं कि इस सप्ततिका नामक प्रकरणमें कर्मप्रकृति प्राभृत आदिके विषयका संक्षेप किया गया है तो भी इसका यह अर्थ नहीं कि इसमें अर्थगौरव नहीं है। यद्यपि ऐसे बहुतसे आख्यान, आलापक और सग्रहणी
आदि प्रय है जो सक्षिप्त होकर भी अर्थगौरवसे रहित होते हैं पर यह अथ उनमेसे नहीं है। प्रथकारने इसी बातका ज्ञान करानेके लिये गाथामें विशेपणरूपसे 'महार्थ' पद दिया है।
विषयका निर्देश करते हुए ग्रथकारने इस गाथामें बन्ध, उदय और सत्त्वप्रकृतिस्थानोके कहनेकी प्रतिज्ञा की है। जिस प्रकार लोहपिडके प्रत्येक कणमे अग्नि प्रविष्ट हो जाती है, उसी प्रकार कर्मपरमाणुओका आत्मप्रदेशोंके साथ परस्पर जो एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध होता है उसे बन्ध कहते हैं। विपाक अवस्थाको प्राप्त हुए कर्मपरमाणुओके भोगको उदय कहते हैं । तथा वन्धसमयसे लेकर या सक्रमण समयसे लेकर जब तक उन कर्मपरमाणुओका अन्य प्रकृति रूपसे संक्रमण नहीं होता या जब तक उनकी निर्जरा नहीं होती तब तक उनके आत्मासे लगे रहनेको सत्ता कहते है । प्रकृतमे स्थान शब्द समुदायवाची है, अत. गाथामे आये हुए 'प्रकृतिस्थान' पदसे दो तीन आदि प्रकृतियोके समुदायका ग्रहण होना है। ये प्रकृतिस्थान वन्ध, उदय और सत्त्वके भेदसे तीन प्रकारके हैं । इस अन्थमे इन्होंका विस्तारसे विवेचन किया गया है। ',' . . .