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सप्ततिकाप्रकरण
गाथामे 'सुरण' यह क्रियापद आया है । इससे ग्रंथकारने यह ध्वनित किय | है कि आचार्य शिष्योको सावधान करके शास्त्रका व्याख्यान करे । यदा कदाचित शिष्योके प्रमादित हो जाने पर भी आचार्य उद्विग्न न होवे किन्तु शिक्षायोग्य मधुर वचनोके द्वारा शिष्योके मनको प्रसन्न करके आगमका रहस्य समझावे | आचार्य की यह एक कला है जो शिष्यमें उत्कृष्ट योग्यता ला देती है । ससारमे रत्न शोधनगुरणके द्वारा ही गुणोत्कर्षको प्राप्त होता है । आचार्य में इस शोधक गुणका होना अत्यन्त आवश्यक है । विनीत घोडेको कावूमे रखना इसमे सारथिकी महत्ता नही है, किन्तु जो सारथि दुष्ट घोड़ेका शिक्षा आदि के द्वारा काबूमे कर लेता है, वही सच्चा सारथि समझा जाता है । यही बात आचार्य में भी लागू होती है । प्राचार्यकी सच्ची सफलता इसमे है कि वह प्रमादसे रखलित हुए शिष्योको भी सुपथगामी बनावे और उन्हें आगम के अध्ययनमे लगावे । पर यह वात कठोरतासे नही प्राप्त की जा सकती है, किन्तु सरल व्यवहार द्वारा शिष्योके मनको हरण करके प्राप्त की जा सकती है । आचार्य के इस कर्त्तव्यको द्योतित करने के लिये ही गाथामे 'सुख' यह क्रियापद दिया है ।
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अब वन्ध, उदय और सत्त्व प्रकृतिस्थानोके संवेधरूप संक्षेप के कहने की इच्छासे आचार्य शिष्य द्वारा प्रश्न कराके भंगोके कहने की सूचना करते है -
कइ वंधतो वेयइ कड़ कइ वा पयडिसंतठाणाणि । मूलुत्तरपगईसुं भंगवियप्पा उ बोधव्वा ||२||
अर्थ – कितनी प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले जीवके कितनी प्रकृतियोका वेदन होता है, तथा कितनी प्रकृतियोका बन्ध और वेदन करनेवाले जीवके कितनी प्रकृतियोका सत्त्व होता है ? इस