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सप्ततिकाप्रकरण
ऐसा ही चतलाया है । वहाँ लिखा है कि पापी जीव समुद्रमें प्रवेश करनेपर भी रत्न नहीं पाता किन्तु पुण्यात्मा जीव तट पर बैठे ही उन्हें प्राप्त कर लेता है । यथा
जलधिगतोऽपि न कचित्कश्चित्तटगोऽपि रत्नमुपयाति । किन्तु विचार करने पर उक्त कथन युक्त प्रतीत नहीं होता | खुलासा इस प्रकार है
कर्म के दो भेद हैं जीवविपाकी और पुदुगलविपाकी । जो जीवको विविधि अवधा और परिमाणोंके होनेमें निमित्त होते हैं वे जीवविपाकी कर्म कहलाते हैं । और जिनसे विविध प्रकारके शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छवास की प्राप्ति होती है वे पुद्गलविपाकी कर्म कहलाते है । इन दोनों प्रकारके कमों में ऐसा एक भी कर्म नहीं बतलाया है जिसका काम वाह्य सामग्रीका प्राप्त कराना हो । सानावेदनीय और असातावेदनीय ये स्वय जीवविपाकी हैं। राजवातिक्रमें इनके कार्यका निर्देश करते हुए लिखा है
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'यस्योदयाद्देवादिगतिपु शारीरमान सुखप्राप्तिस्तत्सद्वेद्यम् । यत्फल दुःखमनेकविध तदसद्वेद्यम् ।' पृष्ठ ३०४ ।
इन वार्तिकों की व्याख्या करते हुए वहां लिखा है
'अनेक प्रकारकी देवादि गतियोंमें जिस कर्म के उदयसे जीवों के प्राप्त हुए द्रव्य के सम्बन्धको अपेक्षा शारीरिक और मानसिक नाना प्रकार का सुख रूप परिणाम होता है वह साता वेदनीय है। तथा नाना प्रकार की नरकादि गतियों में जिस कर्मके फलस्वरूप जन्म, जहा, मरण, इष्टवियोग, अनिष्टसयोग, व्याधि, वध और बन्धनादिसे उत्पन्न हुआ विविध प्रकार का मानसिक और कायिक दु:मह दुख होता है वह असाता वेदनीय है ।'
सर्वार्थसिद्धिमें जो साता वेदनीय और असातावेदनीयके स्वरूपका निर्देश किया है। उनसे भी उक्त कयनकी पुष्टि होती है।