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प्रस्तावना
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देखा जाता है । किन्तु कर्मके विषय में ऐसी बात नहीं है । उसका सबंध तभी तक भात्मासे रहता है जब तक उसमें तदनुकूल योग्यता पाई जाती है । भत. कर्मका स्थान बाह्य सामग्री नहीं ले सकती । फिर भी अन्तरगमें योग्यता के रहते हुए बाह्य सामग्रीके मिलने पर न्यूनाधिक प्रमाण में कार्य तो होता ही है इसलिये निमितोंकी परिगणनामें बाह्य सामग्री की भी गिनती हो जाती है । पर यह परम्परा निमित्त है इसलिये इसकी परिगणना नोकर्म स्थानमें की गई है ।
इतने विवेचनले कर्मकी कार्य मर्यादाका पता लग जाता है । कर्मके निमित्तसे जीव की विविध प्रकारकी अवस्था होती है और जीवमें ऐसी योग्यता श्राती है जिससे वह योग द्वारा यथायोग्य शरीर, वचन और मनके योग्य पुग्दलों को ग्रहण कर उन्हें अपनी योग्यतानुसार परिणमाता है ।
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कर्मकी कार्यमर्यादा यद्यपि उक्त प्रकारकी है तथापि अधिकतर विद्वानों का विचार है कि बाह्य सामग्रीको प्राप्ति भी कर्मसे होती है इन विचारों की पुष्टिमें वे मोक्षमार्ग प्रकाशके निम्न उल्लेखों को उपस्थित करते हैं—'हाँ वेदनीय करि तौ शरीर दिपै वा शरीर तै वाह्य नाना प्रकार सुख दुखनिको कारण पर द्रव्य का सयोग जुरै है ।' पृ० ३५
उसीसे दूसरा प्रमाण वे यों देते हैं
'बहुरि कर्मनि विषै वेदनीयके उदयकरि शरीर विषै वाह्य सुख दुख का कारण निपजै है । शरीर दिवै श्रारोग्यपनौ रोगीपनौ शक्तिवानपनौ दुर्बलपन भर क्षुधा तृपा रोग खेट पीडा इत्यादि सुख दुखनिके कारण हो हैं । बहुरि बाह्य विषै सुहावना ऋतु पवनादिक वा इष्ट स्त्री पुत्रादिक वा मित्र धनादिक सुख दुःखके कारक हो हैं । पृ० ५६ ।
इन विचारोंकी परम्परा यहीं तक नहीं जाती है किन्तु इससे पूर्व - वर्ती बहुतसे लेखकोंने भी ऐसे ही विचार प्रकट किये हैं। पुराणों में पुण्य और पापकी महिमा इसी आधारसे गाई गई है। अमितिगति के सुभाषित रत्न सन्देह में दैवनिरूपण नामका एक अधिकार है । उसमें भी