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सप्ततिकाप्रकरण . . रेलगाड़ीसे सफर करने पर हमें कितने ही प्रकार के मनुप्योंका समा. गम होता है। कोई हँसता हुआ मिलता है तो कोई रोता हुआ । इनसे हमें सुख भी होता है और दुख भी। तो क्या ये हमारे शुभाशुभ कर्मों के कारण रेलगाड़ी में सफर करने आये हैं ? कमी नहीं। जैसे हम अपने काममे सफर कर रहे हैं वैसे वे भी अपने-अपने कामसे सफर कर रहे है। हमारे और उनके संयोग वियोगमें न हमाग कर्म कारण है और न उनका ही कर्म कारण है । वह संयोग या वियोग या तो प्रयत्नपूर्वक होता है या काकत्तालोर न्यायमै बहन होता है। इसमें किसीचा कर्म कारण नहीं है। फिर भी यह अच्छे बुरे कर्मके स्वयमें महायक होता रहता है।
नैयायिक दर्शनकी पालोचना-इम व्यवस्थाको ध्यानमें रखकर नयायिकोंके कर्मवादी मालोचना करने पर उसमें अनेक दोष दिखाई देते हैं। वास्तवमें देखा जाय तो भाजकी सामाजिक व्यवस्या, आर्थिक व्यवस्था और एकतन्त्रक प्रति नैयायिकोंका ईश्वरवाद और कर्मवाद ही उत्तरदायी है। इमीने भारतवर्षको चालू व्यवस्थाका गुलाम बनाना सिवाया । जातीयताका पहाड़ राद दिया। परिमहचादियोंको परिग्रहके मविकाधिक संग्रह करनेमें मदद दी। गरीबीको कर्मका दुर्विपाक वताकर सिर न उठाने दिया | स्वामी सेवक भाव पैदा किया । ईश्वर और कर्मके नाम पर यह सब हमसे कराया गया। धर्मने भी इसमें मदद की। विचारा कर्म तो बदनाम हुमा ही, धर्मको भी बदनाम होना पड़ा। यह रोग भारतवर्ष में ही न रहा। भारतवर्ष के बाहर भी फैल गया।
इस बुराईको दूर करना है यद्यपि जैन कर्मवादको शिक्षाओं द्वारा जनताको यह बताया गया कि जन्म न कोई छून होता है और न बकृत। यह भेद मनुष्यकृत है। एकके पास अधिक पूजीका होना और इसी पाम एक दमदीका न होना, एकका मोटरॉम वूमना और दूसरेका भीम्न मांगते हुए ढोलना यह भी कर्मका फल नहीं है,