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गाथा २
अर्थात् आत्मा का स्वरूप स्पष्ट कर देना चाहते हैं, स्मरण करा देना चाहते हैं; जिससे पाठकों को समय के सन्दर्भ में समयसार समझाया जा सके।
स्वसमय और परसमय - ये दो भेद समय के हैं, समयसार के नहीं। तात्पर्य यह है कि गुण-पर्यायवान जीवद्रव्य ही स्वसमय और परसमय में विभक्त होता है, विभाजित होता है; समयसाररूप शुद्धात्मा तो अविभक्त है, उसके तो कोई भेद होते ही नहीं हैं । स्वसमय और परसमय के भेद पर्याय की ओर से किये गए भेद ही हैं; अत: ये भेद पर्याय सहित आत्मा के ही हो सकते हैं।
उनकी परिभाषाओं से ही यह बात स्पष्ट होती है कि जब यह समय नामक जीव पदार्थ दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थित होता है, तब स्वसमय कहलाता है और जब पुद्गलकर्म के प्रदेशों में स्थित होता है, तब परसमय कहलाता है। तात्पर्य यह है कि जब यह गुण-पर्यायवान जीवद्रव्य अपने त्रिकाली ध्रुव निजभगवान आत्मा में अपनापन स्थापित करता है, उसे ही अपना जानता-मानता है, उसमें ही जमता-रमता है, तब स्वसमय कहलाता है; और जब पुद्गलकर्म के उदय के निमित्त से प्राप्त संयोगों में, संयोगीभावों में अपनापन स्थापित करता है, उन्हें ही अपना जानता-मानता है, उनमें ही जमता-रमता है, तब परसमय कहलाता है।
प्रवचनसार में स्वसमय-परसमय की परिभाषा इसप्रकार दी गई
"जो पज्जएसु णिरदा जीवा परसमग त्ति णिदिट्ठा ।
आदसहावम्हि ठिदा से सगसमया मुणेदव्वा ॥ जो जीव पर्यायों में लीन हैं, उन्हें परसमय कहा गया है और जो जीव आत्मस्वभाव में स्थित हैं, उन्हें स्वसमय जानना चाहिए।" १. आचार्य कुन्दकुन्द : प्रवचनसार, गाथा ९४