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यहाँ तो पर से भिन्न और अपने गुण- पर्यायों से अभिन्न जीवतत्त्व की बात चल रही है, क्योंकि यह जीव की द्विविधता की बात है । जिस जीव में द्विविधता आती है, वह जीव तो गुण-पर्यायवाला जीव ही हो सकता है; परमशुद्धनिश्चयनय का विषयभूत जीव तो एकरूप ही होता है, उसमें तो द्विविधता ( दो पना) संभव ही नहीं है ।
गाथा २
यहाँ जो जीवद्रव्य के विशेषण दिये गये हैं. उनसे जैनदर्शन में मान्य जीव का स्वरूप स्पष्ट होता है और अन्य कथित मान्यताओं का निराकरण भी होता है।
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आत्मा 'उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य सहित है' इस विशेषण से आत्मा की सत्ता न मानने वाले नास्तिकों, आत्मा को सर्वथा अपरिणामी माननेवाले सांख्यों, सत्ता को सर्वथा नित्य माननेवाले नैयायिक और वैशेषिकों तथा सर्वथा क्षणिक माननेवाले बौद्धों का निराकरण हो गया।
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'आत्मा स्व - परप्रकाशक है' इस विशेषण से ज्ञान अपने को ही जानता है, पर को नहीं; इसप्रकार एकाकार को ही माननेवालों का तथा ज्ञान पर को ही जानता है, अपने को नहीं; इसप्रकार अनेकाकार को ही माननेवालों का निराकरण हो गया ।
इस
'यह भगवान आत्मा धर्मादि अन्य द्रव्यों से भिन्न है ' विशेषण से एक ब्रह्मवस्तु को ही माननेवालों का निराकरण हो गया। पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा उक्त कथन के सार को इसी गाथा के भावार्थ में इसप्रकार लिखते हैं :
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"जीव नामक वस्तु को पदार्थ कहा है । 'जीव' इसप्रकार अक्षरों का समूह 'पद' है और उस पद से जो द्रव्य-पर्यायरूप अनेकान्तस्वरूपता निश्चित की जाये, वह पदार्थ है ।
यह जीव पदार्थ उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यमयी सत्तास्वरूप है, दर्शनज्ञानमयी चेतनास्वरूप है, अनन्तधर्मस्वरूप द्रव्य है, द्रव्य होने से वस्तु