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समयसार अनुशीलन
30 के निमित्त से उत्पन्न मोह-राग-द्वेषादि भावों में एकतारूप से लीन होकर प्रवृत्त होता है, तब पुद्गलकर्म के प्रदेशों में स्थित होने से युगपद् ही पर में एकाकार होकर जानता और परिणमता हुआ परसमय कहलाता है।
इसप्रकार इस समय (जीव) की स्वसमय और परसमय - यह द्विविधता (दो पना) प्रगट होती है।"
यहाँ समय का स्वरूप सात विशेषणों के माध्यम से स्पष्ट किया गया है। वह समय नामक जीव पदार्थ -
(१) उत्पाद-व्यय-ध्रुव युक्त सत्ता सहित है। (२) ज्ञान-दर्शनस्वरूप चैतन्यस्वभावी है। (३) अनन्तधर्मात्मक एक अखण्ड द्रव्य है। (४) अक्रमवर्ती गुणों एवं क्रमवर्ती पर्यायों से युक्त है। (५) स्व-परप्रकाशक सामर्थ्य से युक्त होने से अनेकाकार होने पर
भी एकरूप है। (६) अपने असाधारण चैतन्यस्वभाव के सद्भाव एवं परद्रव्यों के
विशेष गुणों के अभाव के कारण परद्रव्यों से भिन्न है। (७) परद्रव्यों से एक क्षेत्रावगाहरूप से अत्यन्त मिला हुआ होने
पर भी अपने स्वरूप से च्युत नहीं होने के कारण टंकोत्कीर्ण
चित्स्वभावी है। यहाँ 'समय' शब्द का अर्थ परद्रव्यों और उनके गुण-पर्यायों से अत्यन्त भिन्न, ज्ञान-दर्शनस्वभावी, उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य से सहित, गुण-पर्यायवान, स्व-परप्रकाशक, अनन्तधर्मात्मक, टंकोत्कीर्ण चैतन्यस्वभावी जीवद्रव्य है। ___ यहाँ प्रमाण के विषयभूत जीवद्रव्य को लिया गया है ; द्रव्यार्थिकनय के विषय या दृष्टि के विषयरूप जीवतत्त्व को नहीं। उसकी चर्चा तो छठवीं-सातवीं एवं चौदहवीं-पन्द्रहवीं गाथा में आयेगी।