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स्थानांग जिन्होंने आचारांग, सुत्रकृतांग और दृष्टिवाद को छोड़कर शेष नौ अंगों पर टीकायें लिखी हैं, इसलिये वे नवांगवृत्तिकार कहे जाते हैं। अभयदेव के कथन से मालूम होता है कि सम्प्रदाय के नष्ट हो जाने से, शास्त्रों के उपलब्ध न होने से, बहुत-सी बातों को भूल जाने से, वाचनाओं के भेद से, पुस्तक अशुद्ध होने से, सूत्रों के अति गंभीर होने से तथा जगह-जगह मतभेद होने के कारण विषयवस्तु के प्रतिपादन में बहुत-सी त्रुटियाँ रह गई हैं।' फिर भी द्रोणाचार्य आदि के सहयोग से उन्होंने इस अथ की टीका रची है । नागर्षि ने इस पर दीपिका लिखी है।
प्रथम अध्ययन में एक संख्यावाली वस्तुओं को गिनाया है। आत्मा एक है (एगे आया)। दूसरे अध्ययन में श्रुतज्ञान के अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट नामक दो भेदों का प्रतिपादन है। चन्द्र, सूर्य और नक्षत्रों के स्वरूप का कथन है। जम्बूद्वीप अधिकार में जम्बूद्वीप का स्वरूप है। तीसरे अध्ययन में दास, भृतक और साझेदार (भाइल्लग) की गिनती जघन्य पुरुषों में की है । माता-पिता, भर्ती और धर्माचार्य के उपकारों का बदला देने को दुष्कर कहा है । मगध, वरदाम और प्रभास नामक तीर्थों और तीन प्रकार की प्रव्रज्या का उल्लेख है । निग्रंथ और
१. सत्संप्रदायहीनत्वात् सदूहस्य वियोगतः ।
सर्वस्वपरशास्त्राणामदृष्टेरस्मृतेश्च मे ॥ वाचनानामनेकत्वात् पुस्तकानामशुद्धितः । सूत्राणामतिगांभीर्यान्मतभेदाच्च कुत्रचित् ॥ खूणानि संभवन्तीह, केवलं सुविवेकिभिः । सिद्धान्तेऽनुगतो योऽर्थः सोऽस्माद् प्रायो न चेतरः ॥
-(पृष्ठ ४९९ अ आदि) २. इस संबंध में धम्मपद अट्ठकथा (२३. ३, भाग १, पृ० ७-१३) में एक मार्मिक कथा दी है जिसके हिन्दी अनुवाद के लिये देखिये जगदीशचन्द्र जैन, प्राचीन भारत की कहानियाँ, पृ० ५-९ ।