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सूत्रकृतांग में मिला लेते हैं। आदान अध्ययन में स्त्री-सेवन आदि के त्याग का विधान है। गाथा अध्ययन में माहण ( ब्राह्मण), श्रमण, भिक्षु और निम्रन्थ की व्याख्या है।
द्वितीय श्रुतस्कंध में सात अध्ययन हैं। पुण्डरीक अध्ययन में इस लोक को पुष्करिणी की उपमा देते हुए तज्जीवतच्छरीर, पंचमहाभूत, ईश्वर और नियतिवादियों के सिद्धांतों का खंडन: किया है। साधु को दूसरे के लिये बनाये हुए, उद्गम, उत्पाद
और एषणा दोषों से रहित, अग्नि द्वारा शुद्ध, भिक्षाचरी से प्राप्त, साधुवेष से लाये हुए, प्रमाण के अनुकूल, गाड़ी को चलाने के लिये उसके धुरे पर डाले जानेवाले तेल की भाँति तथा घाव पर लगाये जानेवाले लेप के समान, केवल संयम के निर्वाह के लिये, बिल में प्रवेश करते हुए साँप की भाँति, स्वाद लिये बिना ही, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को ग्रहण करना चाहिये। क्रियास्थान अध्ययन में तेरह क्रियास्थानों का वर्णन है। यहाँ भौम, उत्पाद, स्वप्न, अंतरीक्ष, आंग, स्वर, लक्षण, व्यंजन, स्त्री-लक्षण' आदि शास्त्रों का उल्लेख है। अनेक प्रकार के दंडों का विधान है। आहारपरिज्ञान अध्ययन में वनस्पति, जलचर और पक्षियों आदि का वर्णन है। प्रत्याख्यानक्रिया अध्ययन में जीवहिंसा हो जाने पर प्रत्याख्यान की आवश्यकता बताई गई है। आचारश्रुताध्ययन में साधुओं के आचार का प्ररूपण है। पाप, पुण्य, बन्ध, मोक्ष, साधु, असाधु, और लोक, अलोक आदि न स्वीकार करने को यहाँ अनाचार कहा है। छठे अध्ययन में गोशाल, शाक्यभिक्षु, ब्राह्मण, एकदंडी और हस्तितापसों के ___१. दीघनिकाय (१, पृ० ९) में अंग, निमित्त, उप्पाद, सुपिन और लक्षण आदि का उल्लेख है । मनुस्मृति (६-५० ) में भी उत्पात, निमित्त, नक्षत्र और अंगविद्या का नाम आता है।
२. ये लोग अपने बाण द्वारा हाथी को मारकर महीनों तक उसके मांस से अपना पेट भरते थे। इनका कहना था कि इस तरह हम अन्य जीवों की हत्या से बच जाते हैं। देखिये सूत्रकृतांग २०६। यहां टीका